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अर्थात् नौका व तालाब एकाकार हो जायेंगे। उसी प्रकार जीव व कर्म पुद्गल एकाकार होकर रहते हैं।
यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि सभी जीवों का पुद्गल के साथ सम्बन्ध नहीं होता है। यह कथन संसारी जीवों की दृष्टि से किया गया है। मुक्त जीव व पुद्गल का सम्बन्ध नहीं होता है। इसे स्पष्ट करते हुए भगवतीसूत्र में कहा है कि रूपी (कर्मयुक्त) जीव अरूपी (कर्ममुक्त) नहीं हो सकता है तथा अरूपी जीव रूपी नहीं हो सकता है। रूपी जीव सकर्म, सराग, सवेद, समोह, सलेश्यी व सशरीर होता है अतः वह अरूपी नहीं हो सकता है। इसी प्रकार अकर्मी, अरागी, अवेदी, अमोही, अलेश्यी, अशरीरी जीव जन्म-मरण से मुक्त हुआ सिद्ध हो जाता है वह जीव फिर पुनः रूपी नहीं हो सकता है। जीव व पुद्गल के परस्पर सम्बन्ध को हम निम्न बिन्दुओं के आधार पर और अधिक स्पष्ट कर सकते हैं।
जीव व शरीर- आत्मा अमूर्त है, उसे हम देख नहीं सकते। मूर्त शरीर में रहने के कारण ही हम अदृश्य आत्मा का अनुभव कर सकते हैं। आत्मा की जितनी भी प्रवृत्तियाँ होती हैं, वे सभी शरीर के द्वारा होती हैं। भगवतीसूत्र में शरीर के पाँच भेद बताये हैं
1. औदारिक, 2. वैक्रिय, 3. आहारक, 4. तैजस, 5. कार्मण
जीव व शरीर में क्या सम्बन्ध है? क्या जीव व शरीर एक दूसरे से भिन्न हैं या सर्वथा अभिन्न? इस विषय में प्रायः सभी दर्शनों में चर्चा प्राप्त होती है। चार्वाक जैसा दर्शन तो शरीर को ही आत्मा स्वीकार करता है। औपनिषद में आत्मा व शरीर को अत्यंत भिन्न माना है। बौद्ध-दर्शन इस प्रश्न पर मौन ही हो जाता है।
भगवतीसूत्र में जीव व शरीर के सम्बन्ध को लेकर निम्न विचार प्रस्तुत किये गये हैं__आया भन्ते! काये, अन्ने काये? गोयमा! आया वि काये, अन्ने वि काये। रूविं भंते! काये पुच्छा। गोयमा! रूविं पि काये, अरूविं पिकाये। एवं सचित्ते विकाए, अचित्ते विकाए - (13.7.15-17) अर्थात् भगवन् शरीर आत्मा है अथवा आत्मा से भिन्न है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् महावीर कहते हैं कि शरीर आत्मा भी है और उससे भिन्न भी है। शरीर रूपी भी है अरूपी भी है। शरीर सचित्त भी है अचित्त भी है। ___ शरीर व आत्मा को लेकर आये इस प्रश्नोत्तर से यह स्पष्ट हो जाता है कि महावीर ने भेदाभेदवाद को स्वीकार करते हुए आत्मा व शरीर के संबंधों की
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन