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सभी जीव समान रूप से असंख्यात प्रदेशों वाले हैं। उन प्रदेशों का संकोचनविस्तार मात्र होता है।
गणधरवाद42 में कहा गया है कि आत्मा सर्वव्यापी नहीं अपितु शरीरव्यापी है। जैसे- घट गुण घट में ही उपलब्ध है उसी तरह आत्मा के गुण शरीर में ही उपलब्ध हैं। शरीर से बाहर (संसारी) आत्मा की अनुपलब्धि है, अतः शरीर में ही उसका निवास है। कर्तृत्व, भोक्तृत्व, बंध, मोक्ष आदि युक्ति-युक्त तभी बनते हैं जब आत्मा को अनेक और शरीर-व्यापी माना जाय। प्रवचनसार टीका3 में आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मा की स्वदेह परिमाण वृत्ति को स्पष्ट करते हुए कहा है कि आत्मा स्थूल तथा कृश शरीर में, बालक तथा कुमार के शरीर में व्याप्त होता है। इसी बात को भगवतीसूत्र में स्पष्ट करते हुए कहा है कि जीव शरीर में सर्वव्यापी है अर्थात् शरीर के हर अंश में जीव व्याप्त है। इसे पुनः उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया है। कछुआ, गोधा, गाय, मनुष्य, भैंसा व उनकी पंक्ति इन सबके दो, तीन या संख्यात टुकड़े कर दिये जाये तो भी उनके बीच का भाग जीव-प्रदेश से स्पृष्ट रहता है। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मा कर्मों के अनुसार जिस शरीर को प्राप्त करता है अपना संकोचन व विस्तार उसी शरीर के अनुसार कर लेता है, फिर उस शरीर का कोई भी अंश ऐसा नहीं जहाँ आत्मा के प्रदेश न हों। जीव चाहे छोटी देह को धारण करने वाला हो या बड़ी देह को धारण करने वाला हो अविरति का सद्भाव दोनों में एक समान ही रहता है। गौतम द्वारा यह पूछे जाने पर कि हाथी और कुंथुए के जीव को क्या समान रूप से अप्रत्याख्यानिकी क्रिया लगती है? इसका उत्तर देते हुए भगवान् महावीर कहते हैं कि अविरति की अपेक्षा से दोनों को समान अप्रत्याख्यानिकी क्रिया लगेगी। नित्यानित्यता
जैन-दर्शन में द्रव्य का लक्षण सत् स्वीकार किया गया है और सत् वही है जो उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य इन तीनों गुणों से युक्त है। इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए भगवतीसूत्र में जीव को स्याद्वादशैली में शाश्वत व अशाश्वत दोनों ही रूपों में स्वीकार किया गया है। यथा- गोयमा! जीवा सिय सासता, सिय असासता - (7.2.36)।
द्रव्य की दृष्टि से जीव शाश्वत है और भाव (पर्याय) की दृष्टि से जीव अशाश्वत है। पंचास्तिकाय7 में आचार्य कुंदकुंद ने भी आत्मा की नित्यता व अनित्यता को समझाते हुए कहा है कि मनुष्यत्व से नष्ट हुआ जीव देवत्व को प्राप्त
जीव द्रव्य
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