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द्रव्यों का विभाजन
जैन परम्परा सर्वसम्मति से छः द्रव्यों को स्वीकार करती है। किन्तु, उन छः द्रव्यों का विभाजन भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से किया गया है।
चेतन व अचेतन की अपेक्षा- चेतना व उपयोग जिसका लक्षण है, वह जीव द्रव्य है इसके विपरीत स्वभाव वाला अचेतन द्रव्य अजीव है। इस प्रकार चेतन व अचेतन गुण के सद्भाव व असद्भाव की अपेक्षा से द्रव्य के दो भेद हुए जीवद्रव्य और अजीव द्रव्य । ___ मूर्त व अमूर्त की अपेक्षा- पुद्गल को रूपी होने के कारण मूर्त माना गया है, शेष जीव, धर्म, अधर्म, आकाश व काल को अमूर्त व अरूपी माना है ।24
क्रियावान व भाववान की अपेक्षा- पुद्गल व जीव सक्रिय होने के कारण क्रियावान के अन्तर्गत आते हैं जबकि धर्म, अधर्म, आकाश व काल निष्क्रिय होने से भाववान हैं। प्रवचनसार25 में कहा गया है कि परिणाम, संघात व भेद के द्वारा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यता को प्राप्त होने के कारण जीव व पुद्गल भाव व क्रिया वाले होते हैं। शेष धर्म, अधर्म, आकाश और काल में सिर्फ परिणाम द्वारा ही उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य होता है अत: वे भाववान हैं।
एक व अनेक की अपेक्षा- संख्या की अपेक्षा से धर्म, अधर्म, आकाश व काल एक हैं तथा जीव व पुद्गल अनन्त हैं। भगवतीसूत्र में भी धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय व आकाशास्तिकाय को एक तथा जीवास्तिकाय व पुद्गलास्तिकाय को अनन्त द्रव्य माना है।
परिणामी व नित्य की अपेक्षा- स्वभाव व विभाव परिणामों की अपेक्षा जीव व पुद्गल परिणामी हैं। धर्म, अधर्म, आकाश व काल में विभावव्यंजन पर्यायों का अभाव होता है अत: वे अपरिणामी हैं।
सप्रदेशी व अप्रदेशी की अपेक्षा- भगवतीसूत्र28 में सप्रदेशी अस्तिकायों की संख्या पाँच बताई गई है- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय व पुद्गलास्तिकाय। अप्रदेशी होने के कारण काल को अस्तिकाय के अन्तर्गत नहीं रखा गया है।
क्षेत्रवान एवं अक्षेत्रवान अपेक्षा- समस्त द्रव्यों को अवगाहना प्रदान करने वाले एकमात्र द्रव्य आकाश को क्षेत्रवान शेष पाँच द्रव्यों को अक्षेत्रवान माना गया है। भगवतीसूत्र में अवगाहना को आकाश का गुण बताया गया है। गुणओ अवगाहणागुणे - (2.10.4)।
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
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