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तात्त्विक महत्त्व
आचार्य तुलसी' ने भगवतीसूत्र को तत्त्वविद्या की आकर कहा है । ग्रंथ में उल्लेखित विभिन्न प्रश्नों के उत्तरों में तत्त्वदर्शन की छटा दर्शनीय है । तत्त्वविद्या की चर्चा करने वाला अन्य कोई ऐसा विशाल ग्रंथ उपलब्ध नहीं है । इसमें चेतन व अचेतन दोनों ही तत्त्वों की विशेष जानकारी उपलब्ध है । तत्त्वचर्चा की दृष्टि से जयन्ती श्राविका, स्कन्दक परिव्राजक, रोहअनगार, कालास्यवेशी, तुंगिकानगरी के श्रावकों के प्रकरण दृष्टव्य हैं ।
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द्रव्य निरूपण में द्रव्य के दो प्रमुख भेद - जीव द्रव्य व अजीव द्रव्य किये हैं । अजीव द्रव्य के रूपी व अरूपी भेद करते हुए उनके पुन: चौदह प्रभेद किये हैं जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल व काल इन छः द्रव्यों के स्वरूप को द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव व गुण की दृष्टि से स्पष्ट किया गया है। 'षड्जीवनिकाय' पर प्रस्तुत ग्रंथ में गंभीरतापूर्वक विचार किया गया है। 'षड्जीवनिकाय' का विवेचन जैन दर्शन की अपनी मौलिकता है। पंचास्तिकाय के सिद्धान्त की भी इस ग्रंथ में भगवान् महावीर द्वारा मौलिक प्ररूपणा की गई है । सम्पूर्ण लोक को पंचास्तिकायों का समूह माना है। वे हैं - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय व जीवास्तिकाय । इन पाँच अस्तिकायों में से जीवास्तिकाय को अरूपी व जीवकाय बताया है तथा शेष चार को अजीवकाय माना है। इनमें भी पुद्गलास्तिकाय को रूपी तथा शेष चार को अरूपी माना है । जीव व पुद्गल के स्वरूप को विस्तार से स्पष्ट करने वाले इस ग्रंथ में जीव व पुद्गल के सम्बन्ध पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। शरीर, मन, इन्द्रियों व बुद्धि को पुद्गल रूप में विवेचित कर उनका जीव के साथ क्या सम्बन्ध है, इसकी सटीक व्याख्या इस ग्रंथ में है। जीव व शरीर की यह व्याख्या दृष्टव्य है
आया भंते! काये, अन्ने काये ?
गोयमा ! आया वि काये, अन्ने वि काये । - (13.7.15 )
अर्थात् हे भगवान्! यह शरीर आत्मा है या आत्मा से भिन्न है ? हे गौतम! यह शरीर आत्मा भी है और आत्मा से भिन्न भी है।
दार्शनिक महत्त्व
ग्रंथ का प्रारंभ 'चलमाणे चलिए' इस प्रश्न से होता है। एकान्त दृष्टि से चलमान व चलित दोनों एक क्षण में नहीं होते हैं । अनेकान्त दृष्टि से दोनों एक क्षण में होते हैं। सम्पूर्ण आगम में अनेकान्त दृष्टि का पूरा उपयोग किया गया है।
भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
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