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द्रव्य को गुण व पर्याय से युक्त माना है- गुणपर्यायवद्व्य म् -(5.37)। इसे स्पष्ट करते हुए पं. सुखलाल जी लिखते हैं कि हर एक वस्तु में दो अंश हैं; एक अंश ऐसा है, जो तीनों कालों में शाश्वत है, दूसरा अंश सदा अशाश्वत है। शाश्वत अंश के कारण हर एक वस्तु ध्रौव्यात्मक (स्थिर) और अशाश्वत अंश के कारण उत्पाद-व्ययात्मकं (अस्थिर) कहलाती है।
___ यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि एक ही वस्तु स्थिर व अस्थिर कैसे हो सकती है। इसी विरोध का परिहार करने के लिए आगे तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है- तद्भावाव्ययं नित्यम् - (5.30) अर्थात जो उसके भाव से (अपनी जाति से) च्युत न हो वही नित्य है। सभी द्रव्य अपनी जाति में स्थिर रहते हुए निमित्त के अनुसार परिवर्तन (उत्पाद-व्यय) प्राप्त करते रहते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि हर वस्तु अपनी जाति (द्रव्य) की अपेक्षा ध्रौव्यता व परिणाम की अपेक्षा उत्पाद-व्यय को प्राप्त होती है। यह ध्रौव्यता व उत्पाद-व्यय का चक्र वस्तु में सदैव पाया जाता है। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक होना यही वस्तुमात्र का स्वरूप है। यही स्वरूप सत् कहलाता है। सत् स्वरूप नित्य है, अर्थात् वह तीनों कालों में एक सा अवस्थित रहता है। ऐसा नहीं है कि किसी वस्तु में या वस्तुमात्र में उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य कभी हो और कभी न हो। प्रत्येक समय उत्पादादि तीनों अंश अवश्य होते हैं, यही सत् का नित्यत्व है।'
नियमसार' में द्रव्य का लक्षण गुण-पर्याय युक्त कहा है। वस्तुतः द्रव्य में गुण व पर्याय का सह-अस्तित्व है। द्रव्य हमेशा परिणमन को प्राप्त होता रहता है। उसमें परिणमन की जो शक्ति है, वह गुण है तथा उस गुण के कारण, जो परिणमन होते हैं, वह पर्यायें हैं। पंचास्तिकाय' में द्रव्य व पर्याय को अनन्यभूत तथा द्रव्य व गुण को अव्यतिरिक्त कहा है। सर्वार्थसिद्धि12 में गुण व पर्याय को समझाते हुए कहा गया है कि जो अन्वयि हैं, वे गुण हैं और जो व्यतिरेकी हैं, वे पर्याय हैं । ज्ञान आदि गुणों द्वारा ही जीव, अजीव से भिन्न प्रतीत होता है। जीव में घटज्ञान, पटज्ञान, क्रोध, मान आदि पाये जाते हैं। वे जीवद्रव्य की पर्यायें हैं।
वादीदेवसूरि ने पर्याय व गुण को विशेष के दो प्रकार बताये हैं एवं सहभावी धर्म को गुण की संज्ञा दी है। ज्ञान शक्ति आदि आत्मा के गुण हैं, जिनका कभी नाश नहीं होता है। द्रव्य की उत्पादव्ययात्मक जो पर्यायें हैं, वे क्रमभावी हैं, जैसे सुख-दुःख हर्ष आदि। न्यायविनिश्चय तथा तत्त्वार्थवार्तिक में भी द्रव्य में गुणों को सहभावी एवं पर्याय को क्रमभावी कहा है।
द्रव्य