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आकाशास्तिकाय व अद्धासमय ये चार प्रमुख भेद किये हैं। पुद्गल व परमाणु का प्रस्तुत ग्रंथ में बहुत ही विस्तार से विवेचन है। पुद्गल का स्वरूप बताते हुए उसे रूपी व मूर्त द्रव्य माना है। ग्रंथ में परमाणु विवेचन अत्यन्त सूक्ष्मता से हुआ है। परमाणु में गति की प्ररूपणा करते हुए कहा है कि परमाणु एक समय में लोकान्त के एक सिरे से दूसरे सिरे तक गति कर सकता है। पुद्गल व परमाणु के सप्रदेशत्व व अप्रदेशत्व, उनकी शाश्वतता, आशाश्वतता, पुद्गल के परिणमन, परमाणु का बंध, पुद्गल की उपयोगिता, पुद्गल के तीन भेद- प्रयोगपरिणत, मिश्रपरिणत व विस्रसापरिणत तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की दृष्टि से पुद्गल व परमाणु का स्वरूप वर्णित है।
अजीव द्रव्यों में पुद्गल के अतिरिक्त धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय व काल द्रव्य के संबंध में भी विवेचन मिलता है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय तीनों के स्वरूप को द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की दृष्टि से समझाया है। धर्मास्तिकाय आदि अरूपी द्रव्यों के अस्तित्व की संदिग्धता का निवारण करते हुए भगवतीसूत्र में कहा है कि जिन वस्तुओं को हम नहीं देखते हैं तो क्या उनका अस्तित्व ही नहीं होता है? जैसे वायु या गंधयुक्त पुद्गल को हम देख नहीं सकते, उन्हें अनुभव तो करते हैं। उनका अस्तित्व तो है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय के अनेक पर्यायवाची शब्दों, उनकी उपयोगिता आदि का विवेचन भी इस ग्रंथ में है। भगवतीसूत्र में सर्वद्रव्य के विवेचन में कालद्रव्य को भी मान्यता दी गई है। काल के सबसे छोटे रूप को 'समय' की संज्ञा दी गई है अर्थात् जिसका दो भागों में छेदन-भेदन न हो सके वह समय है।
स्पष्ट है कि द्रव्य विवेचन में भगवतीसूत्र में छः द्रव्यों के स्वरूप का विस्तार से निरूपण हुआ है। इसका विस्तृत विवेचन आगे के अध्यायों में किया जायेगा। आचार विवेचन
___ भगवतीसूत्र में दर्शन के अतिरिक्त श्रमण-धर्म व आचार का भी विस्तार से विवेचन हुआ है। साध्वाचार के नियम, उनके आहार के दोष, दोषमुक्त भिक्षाचर्या, संयत-असंयत अनगार आदि पर सामग्री मिलती है। श्रमण के आहार विषयक दोषों में बताया गया है कि अंगार दोष, धूमदोष, संयोजनादि दोषों से आहार दूषित हो जाता है अतः इन दोषों से मुक्त नवकोटि विशुद्ध आहार बिना किसी आसक्ति के सिर्फ संयम-जीवन के निर्वाह के लिए करना चाहिये। संवृत व असंवृत
विषयवस्तु
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