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1. ज्ञानावरणीय कर्म, 2. दर्शनावरणीय कर्म, 3. वेदनीय कर्म, 4. मोहनीय कर्म, 5. आयुष्य कर्म 6. नाम कर्म 7. गोत्र कर्म
8. अन्तराय कर्म इनके अल्पत्व व बहुत्व का भी प्रतिपादन किया गया है। 22 परीषहों के विवेचन में कौन सी कर्म प्रकृति से कौन सा परीषह उत्पन्न होता है, इसका निरूपण है। प्रस्तुत ग्रंथ में कर्मों का कर्ता व भोक्ता जीव को ही माना है। जीव अपने स्वकृत कर्मों को भोगता है परकृत कर्मों को नहीं। चूंकि कर्म जीव द्वारा आत्मकृत होते हैं अतः उन कृत कर्मों का फल भोगे बिना नारक, मनुष्य, तिर्यंच या देव को मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है। कर्म के बन्धन पर विचार करते हुए ग्रंथ में कहा गया है कि तीनों वेद वाले, संयत, असंयत, संयतासंयत सभी कर्म बांधते हैं। किन्तु, सिद्ध पुरुष कर्म का बन्धन नहीं करते हैं। कर्म ही व्यक्ति के बन्धन का मुख्य कारण है। कर्मों के कारण ही जीव विविध गतियों यथा नरक, तिर्यंच, मनुष्य अथवा देव गति को प्राप्त होता है। प्रथम शतक के तृतीय उद्देशक में कांक्षामोहनीय कर्म पर विस्तार से विवेचन है। कांक्षामोहनीय कर्मबंध के कारण की परम्परा, उदीरणा, गर्दा; वेदना तथा श्रमणों व चौबीस दण्डकों में कांक्षामोहनीय कर्म-वेदन का निरूपण इस उद्देशक का प्रमुख प्रतिपाद्य है। कांक्षामोहनीय कर्मविवेचन से यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है कि मोहनीय कर्म के उदय से जीव अपक्रमण करता है अर्थात् उत्तम गुणस्थान से हीन गुणस्थान पर आता है। इसे स्पष्ट करते हुए आगे समझाया गया है कि मोहनीय कर्म का उदय होने पर जीव को जिनेन्द्र देवों द्वारा प्ररूपित तथ्य नहीं रुचते हैं और वह अपक्रमण करता है।
कर्म विवेचन के साथ-साथ भगवतीसूत्र में क्रिया के पाँच प्रकारों का भी उल्लेख है15 -
1. कायिकी, 2. अधिकरणिकी, 3. प्राद्वेषिकी, 4. परितापनिकी, 5. प्राणातिपातिकी
श्रमणनिग्रंथों को लगने वाली क्रिया के कारणों की विवेचना करते हुए श्रमण भगवान् महावीर ने कहा है कि प्रमाद के कारण व योग के निमित्त से श्रमण निग्रंथों को क्रिया लगती है और इसी कारण वेदना होती है। सक्रिय जीव मुक्त नहीं होता है। मुक्ति प्राप्ति के लिए जीव को निष्क्रिय बनना पड़ता है। अन्तक्रिया (मोक्ष) की विवेचना करते हुए कहा गया है कि क्रिया रहित जीव आरंभ, सारंभ, समारंभ नहीं
विषयवस्तु
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