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मुनियों की स्मृति के आधार पर जितना उपलब्ध हो सका सारा वाङ्मय सुव्यवस्थित किया गया । नागार्जुन सूरि ने समागत साधुओं को वाचना दी अतः यह नागार्जुनीय वाचना के नाम से प्रसिद्ध हुई । चूर्णियों में नागार्जुन नाम से पाठान्तर मिलते हैं ‘पण्णवणा' जैसे अंगबाह्य सूत्रों में भी इनका निर्देश है ।"
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पंचम वाचना - वीर निर्वाण के 980 वर्षों बाद जब विशाल ज्ञान राशि को स्मृत रखना मुश्किल हो गया तथा श्रुत साहित्य का अधिकांश भाग नष्ट हो चुका था तब वीर निर्वाण के 980 से 993 के बीच देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में श्रमणसंघ पुनः वल्लभी में एकत्रित हुआ । स्मृति में शेष सभी आगमों को संकलित कर पुस्तकारूढ़ किया गया । पुस्तकारूढ़ करने का यह प्रथम प्रयास था। इसमें मथुरा व वल्लभी में हुई वाचना का समन्वयकर उसमें एकरूपता लाने का प्रयास किया गया। जहाँ मतभेद था वहाँ माथुरी वाचना को मूल में स्थान देकर वल्लभी वाचना के पाठों को पाठान्तर में स्थान दे दिया गया । यह आगमों की अन्तिम वाचना थी। इसके बाद आगमों की सर्वमान्य कोई वाचना नहीं हुई । देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के बाद कोई भी पूर्वधर आचार्य नहीं हुए ।
आगम लेखन
जैन परम्परा का विराट साहित्य चौदह पूर्वों व बारह अंगों में संचित था । किन्तु, यह साहित्य लिपिबद्ध नहीं था । इसका कारण यह तो कदापि नहीं हो सकता कि जैनाचार्यों को लेखन-परम्परा का ज्ञान नहीं था, क्योंकि लिपि का प्रारंभ जैन परम्परा में प्रागैतिहासिक काल में ही माना गया है । आगम ग्रंथों में भी इसका उल्लेख है। भगवतीसूत्र में मंगलाचरण में ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया गया हैनमो बंभीए लिवीए - (1.1.1 ) । प्रज्ञापनासूत्र में अठारह लिपियों का उल्लेख आया है। जैनाचार्यों ने आगम ग्रंथों को लिखा नहीं परन्तु उन्हें लेखन - परम्परा का ज्ञान अवश्य था। आगम-युग में लेखन की जगह स्मरण पर ही जोर देने के कुछ प्रमुख कारण रहे होंगे। यथा
(क) लिखने में स्याही, कागज, कलम की आवश्यकता से अपरिग्रह व्रत भंग होने की संभावना थी ।
ख) लिखने में अधिक समय लगता था ।
(ग) लिखे हुए ग्रंथों की सार संभाल मुश्किल कार्य था ।
(घ) इससे साधकों के स्वाध्याय में भी बाधा पड़ती थी ।
(ङ) पुस्तकों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने से वजन बढ़ता था ।
तीर्थंकर व आगम- परम्परा
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