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आराधना कथाकोश
उस दिन से बौद्धोंका राजा और प्रजाके द्वारा चारों ओर अपमान होने लगा । किसीकी बुद्धधर्मपर श्रद्धा नहीं रही । सब उसे घृणाकी दृष्टिसे देखने लगे । यही कारण है बौद्ध लोग यहाँसे भागकर विदेशों में जा बसे । महाराज हिमशीतल और प्रजाके लोग जिनशासनकी प्रभावना देखकर बड़े खुश हुए। सबने मिध्यात्वमत छोड़कर जिनधर्म स्वीकार किया और अकलंकदेवका सोने, रत्न आदिके अलंकारोंसे खूब आदर सम्मान किया, खूब उनकी प्रशंसा की । सच बात है जिनभगवान् के पवित्र सम्यग्ज्ञानके प्रभावसे कौन सत्कारका पात्र नहीं होता ।
अकलंकदेव के प्रभावसे जिनशासनका उपद्रव टला देखकर महारानी मदनसुन्दरीने पहलेसे भी कई गुणे उत्साहसे रथ निकलवाया । रथ बड़ी सुन्दरता के साथ सजाया गया था। उसकी शोभा देखते ही बन पड़ती थी । वह वेशकीमती वस्त्रोंसे शोभित था, छोटी-छोटी घंटियाँ उसके चारों ओर लगी हुई थीं, उनकी मधुर आवाज एक बड़े घंटे की आवाज में मिलकर, जो कि उन घंटियों को ठीक बीच में था, बड़ी सुन्दर जान पडती थी, उसपर रत्नों और मोतियोंकी मालायें अपूर्व शोभा दे रही थीं, उसके ठीक बीच में रत्नमयी सिंहासनपर जिनभगवान् की बहुत सुन्दर प्रतिमा शोभित थी । वह मौलिक छत्र, चामर, भामण्डल आदिसे अलंकृत थी । रथ चलता जाता था और उसके आगे-आगे भव्यपुरुष बड़ी भक्ति के साथ जिनभगवान् की जय बोलते हुए और भगवान्पर अनेक प्रकारके सुगन्धित फूलोंकी, जिनकी महकसे सब दिशायें सुगन्धित होती थीं, वर्षा करते चले जाते थे । चारणलोग भगवान् की स्तुति पढ़ते जाते थे । कुल कामिनियाँ सुन्दर-सुन्दर गीत गाती जाती थीं । नर्तकियाँ नृत्य करती जाती थीं । अनेक प्रकारके बाजोंका सुन्दर शब्द दर्शकों के मनको अपनी ओर आकर्षित करता था । इन सब शोभाओंसे रथ ऐसा जान पड़ता था, मानों पुण्यरूपी रत्नोंके उत्पन्न करनेको चलनेवाला वह एक दूसरा रोहण पर्वत उत्पन्न हुआ है । उस समय जो याचकोंको दान दिया जाता था, वस्त्राभूषण वितीर्ण किये जाते थे, उससे रथकी शोभा एक चलते हुए कल्पवृक्षकीसी जान पड़ती थी । हम रथकी शोभाका कहाँतक वर्णन करें ? आप इसीसे अनुमान कर लीजिये कि जिसकी शोभाको देखकर ही बहुतसे अन्यधर्मी लोगोंने जब सम्यग्दर्शन ग्रहण कर लिया तब उसकी सुन्दरताका क्या ठिकाना है ? इत्यादि दर्शनीय वस्तुओंसे सजाकर रथ निकाला गया, उसे देखकर यही जान पड़ता था, मानों महादेवी मदनसुन्दरीकी यशोराशि ही चल रही है। वह रथ भव्य - पुरुषोंके लिए सुखका
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