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भट्टाकलंकदेवको कथा बतलाया। पर अब मैं इस वादका अन्त करना चाहता हूँ। मैंने आज निश्चय कर लिया है कि मैं आज इस वादकी समाप्ति करके ही भोजन करूँगा । ऐसा कहकर उन्होंने परदेकी ओर देखकर कहा-क्या जैनधर्मके सम्बन्धमें कुछ और कहना बाकी है या मैं शास्त्रार्थ समाप्त करूँ ? वे कहकर जैसे ही चुप रहे कि परदेकी ओरसे फिर वक्तव्य आरम्भ हुआ। देवी अपना पक्ष समर्थन करके चुप हुई कि अकलंकदेवने उसी समय कहा-जो विषय अभी कहा गया है, उसे फिरसे कहो? वह मुझे ठीक नहीं सुन पड़ा। आज अकलंकका यह नया ही प्रश्न सुनकर देवीका साहस एक साथ ही न जाने कहाँ चला गया। देवता जो कुछ बोलते वे एक ही बार बोलते हैं-उसी बातको वे पुनः नहीं बोल पाते । तारा देवीका भी यही हाल हुआ। वह अकलंकदेवके प्रश्नका उत्तर न दे सकी। आखिर उसे अपमानित होकर भाग जाना पड़ा। जैसे सूर्योदयसे रात्रि भाग जाती है।
इसके बाद ही अकलंकदेव उठे और परदेको फाड़कर उसके भीतर घुस गये। वहाँ जिस घड़े में देवीका आह्वान किया गया था, उसे उन्होंने पाँवकी ठोकरसे फोड़ डाला। संघश्री सरोखे जिनशासनके शत्रुओंका, मिथ्यात्वियोंका अभिमान चूर्ण किया। अकलंकके इस विजय और जिनधर्मको प्रभावनासे मदनसुन्दरी और सर्वसाधारणको बड़ा आनन्द हुआ। अकलंकने सब लोगोंके सामने जोर देकर कहा-सज्जनो! मैंने इस धर्मशून्य संघश्रीको पहले ही दिन पराजित कर दिया था किन्तु इतने दिन जो मैंने देवीके साथ शास्त्रार्थ किया, वह जिनधर्मका माहात्म्य प्रगट करनेके लिये और सम्यग्ज्ञानका लोगोंके हृदयपर प्रकाश डालनेके लिये था । यह कहकर अकलंकदेव ने इस श्लोकको पढ़ा
नाहंकारवशीकृतेन मनसा न द्वेषिणा केवलं,
नैरात्म्यं प्रतिपद्य नश्यति जने कारुण्यबुध्या मया। राज्ञः श्रीहिमशीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मनो,
बौद्धौघान्सकलान्विजित्य सुगतः पादेन विस्फालितः।। अर्थात्-महाराज, हिमशीतलको सभामें मैंने सब बौद्धविद्वानोंको पराजित कर सुगतको ठुकराया, यह न तो अभिमानके वश होकर किया गया और न किसी प्रकारके द्वेषभावसे, किन्तु नास्तिक बनकर नष्ट होते हुए जनोंपर मुझे बड़ी दया आई, इसलिये उनको दयासे बाध्य होकर मुझे ऐसा करना पड़ा।
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