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आराधना कथाकोश
परदा लगवा दिया। संघश्रीने उसके भीतर जाकर बुद्धभगवान्की पूजा की और देवीकी पूजाकर एक घड़े में आह्वान किया । धूर्त लोग बहुत कुछ छल कपट करते हैं, पर अन्तमें उसका फल अच्छा न होकर बुरा ही होता है ।
इसके बाद घड़ेको देवी अपनेमें जितनी शक्ति थी उसे प्रगटकर अकलंकके साथ शास्त्रार्थ करने लगी। इधर अकलंकदेव भी देवीके प्रतिपादन किये हुए विषयका अपनी दिव्य भारती द्वारा खण्डन और अपने पक्षका समर्थन तथा परपक्षका खण्डन करनेवाले परम पवित्र अनेकान्तस्याद्वादमतका समर्थन बड़े ही पाण्डित्यके साथ निडर होकर करने लगे। इस प्रकार शास्त्रार्थ होते-होते छह महीना बीत गये, पर किसीकी विजय न हो पाई। यह देख अकलंकदेवको बड़ी चिन्ता हुई। उन्होंने सोचासंघश्री साधारण पढ़ा-लिखा और जो पहले ही दिन मेरे सम्मुख थोड़ी देर भी न ठहर सका था, वह आज बराबर छह महीनासे शास्त्रार्थ करता चला आता है। इसका क्या कारण है, सो नहीं जान पड़ता। उन्हें इसकी बड़ी चिन्ता हुई। पर वे कर ही क्या सकते थे। एक दिन इसी चिन्तामें ड्रबे हए थे कि इतने में जिनशासनकी अधिष्ठात्री चक्र श्वरो देवी आई और अकलंकदेवसे बोली-प्रभो! आपके साथ शास्त्रार्थ करनेकी मनुष्यमात्रमें शक्ति नहीं है और बेचारा संघश्री भी तो मनुष्य है तब उसकी क्या मजाल जो वह आपसे शास्त्रार्थ करे? पर यहाँ तो बात कुछ और ही है। आपके साथ जो शास्त्रार्थ करता है वह संघश्री नहीं है, किन्तु बुद्धधर्मकी अधिष्ठात्री तारा नामकी देवी है। इतने दिनों से वही शास्त्रार्थ कर रही है। संघश्रीने उसकी आराधनाकर यहाँ उसे बुलाया है। इसलिये कल जब शस्त्रार्थ होने लगे और देवी उस समय जो कुछ प्रतिपादन करे तब आप उससे उसी विषयका फिरसे प्रतिपादन करनेके लिये कहिये । वह उसे फिर न कह सकेगी और तब उसे अवश्य नीचा देखना पड़ेगा। यह कहकर देवी अपने स्थान पर चली गई। अकलंकदेवको चिन्ता दूर हुई । वे बड़े प्रसन्न हुए।
प्रातःकाल हुआ। अकलंकदेव अपने नित्यकर्मसे मुक्त होकर जिनमन्दिर गये । बड़े भक्तिभावसे उन्होंने भगवान्की स्तुति की। इसके बाद वे वहाँसे सीधे राजसभामें आये। उन्होंने महाराज शुभतुंगको सम्बोधन करके कहा-राजन् ! इतने दिनोंतक मैंने जो शास्त्रार्थ किया, उसका यह मतलब नहीं था कि मैं संघश्रीको पराजित नहीं कर सका। परन्तु ऐसा करनेसे मेरा अभिप्राय जिनधर्मका प्रभाव बतलानेका था। वह मैंने
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