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आराधना कथाकोश
करनेवाले मूर्तिमान शरीर समझो। यह कहकर पद्मावती अपने स्थान चली गई ।
देवीकी बात सुनकर महारानी अत्यन्त प्रसन्न हुई । उसने बड़ी भक्ति साथ जिनभगवान् की स्तुति की और प्रातःकाल होते ही महाभिषेक पूर्वक पूजा की। इसके बाद उसने अपने राजकीय प्रतिष्ठित पुरुषोंको अकलंकदेवके ढूँढनेको चारों ओर दौड़ाये। उनमें जो पूर्व दिशाकी ओर गये थे, उन्होंने एक बगीचे में अशोक वृक्षके नीचे बहुतसे शिष्योंके साथ एक महात्माको बैठे देखा । उनके किसी एक शिष्यसे महात्माका परिचय और नाम धाम पूछकर वे अपनी मालकिनके पास आये और सब हाल उन्होंने उससे कह सुनाया । सुनकर ही वह धर्मवत्सला खानपान आदि सब सामग्री लेकर अपने सधर्मियोंके साथ बड़े वैभवसे महात्मा अकलंक के सामने गई, वहाँ पहुँचकर उसने बड़े प्रेम और भक्तिसे उन्हें प्रणाम किया। उनके दर्शन से रानीको अत्यन्त आनन्द हुआ । जैसे सूर्यको देखकर कमलिनीको और मुनियोंका तत्त्वज्ञान देखकर बुद्धिको आनन्द होता है।
इसके बाद रानीने धर्मप्रेमके वश होकर अकलंकदेवकी चन्दन, अगुरु, फल, फूल, वस्त्रादिसे बड़े विनयके साथ पूजा की और पुनः प्रणाम कर वह उनके सामने बैठ गई । उसे आशीर्वाद देकर पवित्रात्मा अकलंक बोले – देवी, तुम अच्छी तरह तो हो, और सब संघ भी अच्छी तरह है न ? महात्माके वचनों को सुनकर रानीकी आँखोंसे आँसू बह निकले, उसका गला भर आया । वह बड़ी कठिनता से बोली - प्रभो, संघ है तो कुशल, पर इस समय उसका घोर अपमान हो रहा है; उसका मुझे बड़ा कष्ट है । यह कहकर उसने संघश्री का सब हाल अकलंकसे कह सुनाया । पवित्र धर्मका अपमान अकलंक न सह सके। उन्हें क्रोध हो आया । वे बोले- वह वराक संघश्री मेरे पवित्र धर्मका अपमान करता है, पर वह मेरे सामने है कितना, इसकी उसे खबर नहीं है । अच्छा देखूंगा उसके अभिमानको कि वह कितना पाण्डित्य रखता है । मेरे साथ खास बुद्ध तक तो शास्त्रार्थ करने की हिम्मत नहीं रखता, तब वह बेचारा किस गिनती में है ? इस तरह रानीको सन्तुष्ट करके अकलंकने संघश्री के शास्त्रार्थ के विज्ञापनकी स्वीकारता उसके पास भेज दी और आप बड़े उत्सवके साथ जिनमन्दिर आ पहुँचे ।
पत्र संघश्री के पास पहुँचा । उसे देखकर और उसकी लेखन शैलीको
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