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आराधना कथाकोश
कमलों का आश्रय केवल दिखाऊ था । वास्तवमें तो उन्होंने जिसके बराबर संसार में कोई आश्रय नहीं हो सकता, उस जिनशासनका आश्रय लिया था ।
निकलंक भाईसे विदा हो जी छोड़कर भागा जा रहा था । रास्तेमें उसे एक धोबी कपड़े धोते हुये मिला | धोबीने आकाशमें धूलकी घटा छाई हुई देखकर निकलंकसे पूछा, यह क्या हो रहा है ? और तुम ऐसे जी छोड़कर क्यों भागे जा रहे हो ? निकलंकने कहा- पीछे शत्रुओंकी • सेना आ रही है । उन्हें जो मिलता है उसे ही वह मार डालती है । इसीलिये मैं भागा जा रहा हूँ। ऐसा सुनते ही धोबी भी कपड़े वगैरह सब वैसे ही छोड़कर निकलंकके साथ भाग खड़ा हुआ । वे दोनों बहुत भागे, पर आखिर कहाँ तक भाग सकते थे ? सवारों ने उन्हें धर पकड़ा और उसी समय अपनी चमचमाती हुई तलवारसे दोनोंका शिर काटकर वे अपने मालिक के पास ले गये । सच है पवित्र जिनधर्म अहिंसा धर्म से रहित मिथ्यात्वको अपनाये हुए पापी लोगों के लिए ऐसा कौन महापाप TO रह जाता है, जिसे वे नहीं करते। जिनके हृदयमें जीव मात्रको सुख पहुँचाने वाले जिनधर्मका लेश भी नहीं है, उन्हें दूसरोंपर दया आ भी कैसे सकती है ?
उधर शत्रु अपना कामकर वापिस लौटे और इधर अकलंक अपनेको निर्विघ्न समझ सरोवर से निकले और निडर होकर आगे बढ़े। वहाँ से चलते-चलते वे कुछ दिनों बाद कलिंग देशान्तर्गत रत्नसंचयपुर नामक शहर में पहुँचे । इसके बाद का हाल हम नीचे लिखते हैं
उस समय रत्नसंचयपुरके राजा हिमशीतल थे । उनकी रानीका नाम मदनसुन्दरी था । वह जिन भगवान् की बड़ी भक्त थी । उसने स्वर्ग और मोक्ष सुख देनेवाले पवित्र जिनधर्मकी प्रभावना के लिये अपने बनवाये हुये जिनमन्दिर में फाल्गुन शुक्ल अष्टमी के दिनसे रथयात्रोत्सव का आरम्भ करवाया था । उसमें उसने बहुत द्रव्य व्यय किया था ।
वहाँ संघश्री नामक बौद्धोंका प्रधान आचार्य रहता था उसे महारानीका कार्य सहन नहीं हुआ । उसने महाराजसे कहकर रथयात्रोत्सव अटका दिया और साथ ही वहाँ जिनधर्मका प्रचार न देखकर शास्त्रार्थके लिये घोषणा भी करवा दी । महाराज शुभतुंगने अपनी महारानीसे कहाप्रिये, जबतक कोई जैन विद्वान् बौद्धगुरुके साथ शास्त्रार्थ करके जिनधर्मका प्रभाव न फैलावेगा तबतक तुम्हारा उत्सव होना कठिन है । महाराज
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