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भट्टाकलंकदेवकी कथा
यह विचार कर वे दोनों भाई दबे पाँव निकल गये और जल्दी-जल्दी रास्ता तय करने लगे ।
इधर जब आधी रात बीत चुकी और बौद्धगुरुको आज्ञानुसार उन दोनों भाइयोंके मारनेका समय आया; तब उन्हें पकड़ लानेके लिये नौकर लोग दौड़े गये, पर वे कैदखानेमें जाकर देखते हैं तो वहाँ उनका पता नहीं । उन्हें उनके एकाएक गायब हो जानेसे बड़ा आश्चर्य हुआ । पर कर क्या सकते थे । उन्हें उनके कहीं आस-पास हो छुपे रहनेका सन्देह हुआ । उन्होंने आस-पास के वन, जंगल, खंडहर, बावड़ी, कुएँ, पहाड़, गुफायें आदि सब एक-एक करके ढूंढ़ डाले, पर उनका कहीं पता न चला। उन पापियों को तब भी सन्तोष न हुआ सो उनके मारनेकी इच्छासे अश्व द्वारा उन्होंने यात्रा की । उनकी दयारूपी बेल क्रोधरूपी दावाग्निसे खूब ही झुलस गई थी, इसीलिये उन्हें ऐसा करनेको बाध्य होना पड़ा। दोनों भाई भागते जाते थे और पीछे फिर-फिर कर देखते जाते थे, कि कहीं किसीने हमारा पीछा तो नहीं किया है । पर उनका सन्देह ठीक निकला । निकलंकने दूर तक देखा तो उसे आकाशमें धूल उठती हुई दोख पड़ी । उसने बड़े भाईसे कहा- भैया ! हम लोग जितना कुछ करते हैं, वह सब निष्फल जाता है । जान पड़ता है दैवने अपनेसे पूर्ण शत्रुता बाँधी है । खेद है परम पवित्र जिनशासनकी हम लोग कुछ भी सेवा न कर सके और मृत्युने बीचही में आकर धर दबाया। भैया ! देखो, तो पापी लोग हमें मारनेके लिये पीछा किये चले आ रहे हैं । अब रक्षा होना असंभव है । हाँ मुझे एक उपाय सूझ पड़ा है उसे आप करेंगे तो जैनधर्मका बड़ा उपकार होगा । आप बुद्धिमान हैं, एक संस्थ हैं । आपके द्वारा जैनधर्मका खूब प्रकाश होगा। देखते हैं - वह सरोवर है । उसमें बहुतसे कमल हैं । आप जल्दी जाइये और तालाब में उतरकर कमलों में अपनेको छुपा लीजिये जाइये, जल्दी कीजिये; देरीका काम नहीं है । शत्रु पास पहुँचे आ रहे हैं आप मेरी चिन्ता न कीजिये। मैं भी जहाँ तक बन पड़ेगा, जीवन की रक्षा करूँगा । और यदि मुझे अपना जीवन दे देना भी पड़े तो मुझे उसकी कुछ परवाह नहीं, जब कि मेरे प्यारे भाई जीते रहकर पवित्र जिनशासनकी भरपूर सेवा करेंगे । आप जाइये, मैं भी अब यहाँ से भागता हूँ ।
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अकलंक की आँखोंसे आँसुओंकी धार बह चली । उनका गला भ्रातृप्रेमसे भर आया । वे भाईसे एक अक्षर भी न कह पाये कि निकलंक वहाँसे भाग खड़ा हुआ । लाचार होकर अकलंकको अपने जीवनकी नहीं, पवित्र जिनशासनकी रक्षाके लिये कमलोंमें छुपना पड़ा। उनके लिये
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