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'लेकिन हमारे ऋषि पूर्वजों ने जो मन्त्र-दर्शन किया था, वह तो .
'हमारे ऋषि पूर्वजों ने सत्यतः इसी सत् का मन्त्र-दर्शन किया था। कणकण में स्वतः व्याप्त अबाध आनन्द का बोध उन्होंने पाया था। अपनी विषयवासनाओं से हमने भूमा के उस आनन्द को अल्प और मर्त्य कर दिया। हमने श्रौत यज्ञों के स्वार्थी, कर्मकाण्डी शास्त्र रच कर, परमाग्नि को अपनी ही ईहातृप्ति का साधन बना लिया। हमने वेद-पुरुष का घात किया है। आज ब्राह्मणत्व वेदच्युत हो गया है। वेद वेदाभास होकर रह गया है। दिवो दुहिता गायत्री के स्तनों से भर्ग का दूध नहीं, आमिष रक्त की धारा बह रही है। मेरा रोम-रोम घायल है आज । - 'मेरी वेदना को समझो, कोडाल-पुत्र !'
'समझ रहा हूँ, भार्गवी। लेकिन श्रीत यज्ञों की जो परम्परा चली आयी है, वह क्या वेद-विहित नहीं ?'
'सुनें आर्य, वेद के ऋषि मूलतः कवि थे। उन्होंने सृष्टि में व्याप्त अनन्त सौन्दर्य और आनन्द का भाव-बोध पाया था। ऐन्द्रिक-मानसिक चेतना के स्तर पर, वे यज्ञों द्वारा उसी को अभिव्यक्त देने लगे। पर वह आनन्द जब ऐन्द्रिक सीमा में अवरुद्ध होकर, मांस-माटी के मर्त्य अन्धकार में लुप्त होने लगा, तब श्रमणों ने प्रकट होकर, उसे मांस की कारा से मुक्त किया, और फिर से भूमा के चिदाकाश में विस्तीर्ण कर दिया। . . . '
'तो इस परम्पर। के आदि पुरुष कौन थे ?'
'भगवान ऋषभदेव। हमारे काल में जनक विदेह, याज्ञवल्क्य और महाश्रमण पार्श्व में वहीं वेद-भगवान नवीन रूप में उपनिषत् हुए हैं। ब्राह्मण केवल भोक्ता होकर नहीं, श्रमण होकर ही ब्राह्मणत्व को चरितार्थ कर सकेगा। सम्मेदशिखर के चुड़ान्त पर, जातरूप दिगम्बर पार्श्व में, महातपस् के भीतर से परम अग्नि प्रकट हुए थे। उनके जाज्वल्यमान अंग-अंग से अहिंसा और अभय का अमृत सोम प्रवाहित हुआ है। उन मृत्युंजय को अब भी हमने नहीं पहचाना! हमारा दुर्भाग्य ।' ___ 'लेकिन देवा, कुरु-पांचाल के ब्राह्मण कहते हैं कि यह ब्राह्मणों के विरुद्ध क्षत्रियों का षडयन्त्र है। उनका कहना है कि हम पूर्वांचल के ब्राह्मण, पापित्य श्रमणों के अनुयायी होकर वेद-विद्रोही हो उठे हैं, कि हम वेद की मिथ्या व्याख्याएँ कर रहे हैं।'
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