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१८
'आपे में नहीं हूँ, तो कारण क्या बताऊँ, आयं !'
'महीनों हो गये, हवन-कुण्ड में अग्नि नहीं प्रकटाये तुमने? सो सारी ब्रह्मपुरी निरग्नि, निष्प्राण हो पड़ी है। अग्निदेव मानो सदा को सो गये हैं !' ___'सोना अग्नि का स्वभाव नहीं, आर्य ऋषभ ! अग्नि तो सदा-जागृत देवत् हैं। अन्य देवता उषा में ही जागते हैं। पर अग्नि तो जड़त्व की घनघोर अन्धकार रात्रि में भी जागृत ही रहते हैं। वे नित्य चैतन्य चिद्पुरुष हैं। निखिल चराचर के भीतर वे निष्कम्प दृष्टि रूप से सदा जागृत हैं। वे सो जायेंगे, उस दिन तो सृष्टि का ही लोप हो जायेगा।' ___ 'तुम्हारे भावाशय को समझ रहा हूँ, जालन्धरी। पर द्रव्य-यज्ञ के सहारे ही तो भाव-यज्ञ चल सकता है। द्रव्य-पदार्थ में उन वैश्वानर को प्रकट करो, तो बहुत दिनों के अवसन्न अन्तराग्नि आपोआप ही चैतन्य हो उठेगे। . .'
'होम-कुण्डों में उन्हें प्रकट करते, और हव्यों की आहुतियां देते, हमारी पीढ़ियों गुजर गयीं। उनके द्वारा अब हम प्रजापति, अर्यमन और अंगिरस आदि पितृ-जनों को प्रसन्न नहीं कर पाते। यज्ञों द्वारा अब हम ब्राह्मण केवल अपनी ऐहिक लिप्साओं को तृप्त करते हैं।' _ 'सच कह रही हो, आयें ! अंगिरा के स्मरण मात्र से ही रोमांचित हो उठा हूँ। उन्होंने ही सबसे पहले अग्नि का उद्घाटन किया था। उन्होंने ही सबसे पहले प्रकाश के दर्शन किये। यज्ञ के आदि पुरोधा वे ही थे। ..'
'सुनें भूदेव! उन अंगिरा द्वारा प्रकाशित, सर्वपावनकारी अग्नि को हमने अपनी ऐन्द्रिक लालसाओं से अपावन कर दिया है। वे आदि अग्नि वैश्वानर हैं। ब्रह्माण्ड के कण-कण के वे जीवन हैं। उन्हीं से सब कुछ चिन्मय है। वे सम्यक दर्शन हैं, सम्यक् ज्ञान हैं, वे ही हमारे भीतर सम्यक् चारित्र्य प्रकट करते हैं। 'अग्निमाले पुरोहितम्'। वहीं हवन-कुण्ड में सत्य की ज्वाला के रूप में प्रकट होते हैं। वही अपनी आहुति हैं। वही अपने पुरोहित हैं। अपने भीतर की चैतन्य अग्नि में, अपने अहम् और तज्जन्य वासनाओं की आहुति देना, यही सच्चा यज्ञ है। उत्तर आर्यों ने विषय-प्रमत्त होकर, यज्ञ के उस स्वरूप को भुला दिया है। आज वे केवल लौकिक और स्वर्गिक सुखों की प्राप्ति के लिए यज्ञ करते हैं। इसी से यज्ञेश्वर रूठ गये हैं। केवल बाह्य होमाग्नि प्रकट कर, उनका दर्शन और पूजन सम्भव नहीं। कामार्त और स्वार्थान्ध यज्ञों से उन्हें प्रसन्न नहीं किया जा सकता। वे सर्व चराचर के कल्याण के लिए हमारी आत्माहुति चाहते हैं. . !'
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