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हमारे जिन आर्य पूर्वजों ने ऋकों का गान किया था, वे मंत्रद्रष्टा थे। उशनस् थे, कवि थे। अन्तस की समग्र संवेदना से उन्होंने सत्ता का भावबोध पाया था। प्रकृति की नाना रूपात्मक लीला में, उन्होंने उसी एक दिव्य हिरण्यगर्भ पुरुष का दर्शन किया था। इसी से कण-कण, तृण-तृण के स्पन्दन और कम्पन के साथ वे एक-प्राण हुए थे। सर्व के भीतर वे प्रतिपल जिये थे। फलतः ‘रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव' और 'एकम् वा इदं, विबभूव सर्वम्' का मंत्रोच्चार उन्होंने किया था। इन्द्र थे इस सृष्टि के प्रज्ञाता, प्रचेतस्; और अग्नि थे इसके केन्द्रीय चिद्पुरुष। असत्ता की अन्धकार रात्रि में से प्रकट होकर अज्ञान के दस्यु और पशु, रह-रह कर सूर्यसवितुर् की सृष्टि को आक्रान्त करते रहते थे। इस कारण, उस एकमेव में शृंखलित सृष्टि का सुखद संवाद भंग हो जाता था। तब ऋतम्भरा प्रज्ञा से आलोकित ऋग्वेद के ऋषि, अपनी अन्तस्थ चिदग्नि को प्रज्ज्वलित कर, प्रचेता इन्द्र का आवाहन करते हुए, सर्वमेध यज्ञ किया करते थे। 'मेध' का अर्थ है 'संगमन'एकत्रित करना। तमस्-पुत्र दस्युओं द्वारा छिन्न-भिन्न सृष्टि को पुनः एकत्रित करने को ही इन यज्ञों का आयोजन होता था। उनमें वे अपने ही भीतर घुस बैठे अज्ञान के पशुओं की आहुति देते थे। पांच यज्ञीय पशुओं के रूप में असंख्य पशुसृष्टि का ग्रहण होता था। पुरुष, अश्व, गौ, अवि और अज के इन पाँच पशु-रूपों में समस्त पशुत्व का सारांश समाया था। आदि आर्यों के सर्वमेध में इन पांच प्राणियों की नहीं, इनके पाँच तमसाकार आक्रामक पश-तत्वों की आहुति दी जाती थी। उत्तर आर्य अपनी ऐन्द्रिक वासनाओं के वशीभूत होकर, इन पशुजयी यज्ञों के बहाने पशु-बलि चढ़ा कर, स्वयम् ही पशुत्व के ग्रास होते चले गये। लेकिन यथार्थ में परा-पूर्वकाल में, सर्व को एकत्र करने के लिए ही, सर्वमेध यज्ञ में, सर्व पशुत्व का आहुति दी जाती थी।
· · 'पर, हाय रे हाय, अर्यमन और प्रजापति के ऋक्-धर्म की यह कैसा अनर्थक ग्लानि हुई है। ऋकों का अपलाप हुआ है। वृत्र का तिामरान्ध सैन्य फिर लोक पर छा गया है। क्या प्रज्ञाता इन्द्र पराजित हो गये हैं ? सप्त-सिन्धु का मातृगर्भा घाटियाँ और आँचल प्राणि-शिशुओं के वध और दहन से आक्रन्द कर रहे हैं। परावाक् को वाक्मान करने वाली सरस्वती के पयोधर पानी अपने ही बालकों के रक्त से पंकिल हो गये हैं ! ___ . . 'ओ माँ अदिति, तुम कहाँ हो! तुम्हारे देवांशी पुत्रों पर फिर दिति के असुरांशी पुत्रों ने अधिकार कर लिया है। मैं ब्राह्मणी हूँ : तुम्हारे ब्रह्मतेज की बेटी हूँ। नारी होकर, धरित्री और जनेत्री हूँ, सो अपनी ही संतानों का यह निरन्तर वध मुझे असह्य हो गया है। मेरे गर्भ में जैसे ब्रह्माण्ड छटपटा रहा है।
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