________________
अनेकान्त 60 / 1-2
सुख का मूल : संतोष
कहा जाता है पहले कभी सतयुग में सब के आंगन में कल्प वृक्ष हुआ करते थे। जीवन की सभी आवश्यक वस्तुएं, उन कल्प वृक्षों से प्राप्त हो जाती थीं । शायद वह तब की बात होगी जब मनुष्य को संग्रह का रोग नहीं था । उसका परिवार और उसकी आवश्यकताएं सीमित थीं और वह अपने वर्तमान में जीना पसन्द करता था। समाज में छीना-झपटी और संचय की होड़ नहीं थी ।
25
I
आज परिस्थितियाँ कुछ अलग प्रकार की हैं। सादगी का सौन्दर्य और संतोष की सुगन्ध हमारे जीवन में कहीं दिखाई नहीं देती । व्यय का आय के साथ कोई संतुलन नहीं है । हमारी असीम - आकाँक्षाओं से डर कर ही शायद कल्प वृक्ष कहीं छिप गये हैं । वे लुप्त नहीं हुए । आज भी यदि संचय की तृषा न हो, और आकाँक्षाएं सीमित हों, हर परिवार अपनी आय के अनुसार व्यय का बजट बनाना और उसके अनुसार ही संतोष पूर्वक जीना सीख ले तो आज भी हर ऑगन में कल्प वृक्ष उगाये जा सकते हैं ।
क्या दिया है परिग्रह ने?
लालसा से भरा हमारा मन जहाँ तक जाता है, वहाँ तक जो भी हमें दिखाई देता है, वह सब हमारा परिग्रह है । यह मन की लालसा चित्त को व्यामोह की कुंडली में कस लेती है। आचार्यों ने लालसा की इसी वृत्ति को 'मूर्च्छा' कहा है। जिसके मन में पर पदार्थ के प्रति गहरी लालसा है, मूर्च्छा-भाव है, सारा संसार उसका परिग्रह है । जिसके मन में यह मूर्च्छा-भाव निकल गया है, संसार में रहते हुये भी, संसार उसका परिग्रह नहीं है
मूर्च्छाच्छन्नधियां सर्वं जगदेव परिग्रहः, मूर्च्छया रहितानां तु जगदेवाऽपरिग्रहः ।