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अनेकान्त 60/1-2
आत्मज्योतिर्निधिरनवधिष्टारानन्दहेतुः। कर्मक्षोणीपटलपिहितो योऽनवाप्य परेषां ।।
हस्ते कुर्वत्यनतिचिरतस्तं भवद् भक्ति भाजः। स्तोत्रैर्बन्ध प्रकृति परुषों द्धामधात्री खनित्रैः।।
- एकीभाव स्तोत्र-15 भक्ति से परिपूर्ण हृदयशील स्तोत्रकार यहां तक कह देता है कि चित्त की शुद्धि प्रभु भक्ति से ही होती है। पुराणों की मान्यता है कि गंगा नदी हिमालय पर्वत से प्रकट हुई और समुद्र पर्यन्त लम्बी है, इसमें स्नान करने वाला पापरहित हो शुद्ध हो जाता है। इसी बात को लक्ष्यकर स्रोतकार कहते हैं कि प्रभु के अनेकान्त नय को देखकर मेरी भक्ति उत्पन्न हुई है और यह भक्ति तव तक रहेगी जब तक मोक्ष की प्राप्ति न हो जाए तथा यह भक्ति हमेशा प्रभु के चरण कमलों में रहती
हम भक्ति के उद्देश्यों को निम्न शीर्षकों में वर्णन कर सकते हैं:
1. तद्गुणप्राप्ति :- उपासक अपने उपास्य की भक्ति करता है, उनका गुणों का संस्तवन करता है, उसके पीछे केवल उनकी कृपा प्राप्त करना नहीं, अपितु उन जैसा बनने की भावना सम्मिलित रहती है। उसके हृदय में यह अन्तर्निहित रहता है कि वह साधना के द्वारा वैसे गुणों का जो उसके आराध्य में है, पात्र बने। भटित एवं स्तवन के साथ वहां आत्प-प्रेरणा का भाव अनुस्यूत रहता है तत्त्वार्थसूत्र के प्रारम्भ में कहा गया है
मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् ।
ज्ञातारं विश्वतत्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये।। यहां भक्त कहता है- मैं मोक्ष मार्ग के नेता, कर्म रूपी पर्वतों के भेत्ता और विश्व तत्त्वों के ज्ञाता को उसके गुणों की प्राप्ति के लिए