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अनेकान्त 60/4
दिग्व्रत के अतिचार
तत्त्वार्थसूत्र में ऊर्ध्वव्यतिक्रम, अधोव्यतिक्रम, तिर्यग्व्यतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृति - अन्तराधान को दिग्व्रत के अतिचार कहा गया है। अतिचार और अतिक्रम पर्यायवाची शब्द हैं। अतिचार का अभिप्राय है ग्रहण किये गये नियम में दोष का लगाना या किसी कारणवश नियम का अतिक्रमण हो जाना । सामान्यतः अतिचार में अज्ञात रूप में हुए छोटे-छोटे दोष आते हैं तथा इनकी गुरु के समक्ष आलोचना करने पर या स्वयं प्रायश्चित्त ग्रहण कर लेने पर शोधन भी हो जाता है ।
परिमित मर्यादा से अधिक ऊँचाई वाले पर्वत आदि पर चढ़ना ऊर्ध्वव्यतिक्रम, मर्यादा से अधिक गहरे कुआ आदि में उतरना अधोव्यतिक्रम, तथा सुरंग आदि में मर्यादा से अधिक जाना तिर्यक्व्यतिक्रम, नामक अतिचार है। दिशाओं का जो परिमाण किया है, लोभवश उससे अधिक क्षेत्र में जाने की इच्छा करना क्षेत्रवृद्धि तथा की गई मर्यादा को भूल जाना स्मृति-अन्तराधान नामक अतिचार है ।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार में भी समन्तभद्राचार्य ने इन्हीं पाँच अतिचारों का कथन किया है। उन्होने लिखा है
‘ऊर्ध्वाधस्तात्तिर्यग्व्यतिपाताः क्षेत्रवृद्धिरवधीनाम् । विस्मरणं दिग्विरतेरत्याशाः पञ्च मन्यन्ते । ।'' "
इस सन्दर्भ में आचार्य अकलंकदेव ने क्षेत्रवृद्धि नामक अतिचार के प्रसंग में परिग्रहपरिमाणाणुव्रत के अतिचार से इसकी भिन्नता स्पष्ट करते हुए कहा है कि परिग्रहपरिमाणाणुव्रत क्षेत्र, वास्तु आदि विषयक है, जबकि यह दिशाविरमण से सम्बन्धित है। इस दिशा में लाभ होगा, अन्यत्र लाभ नहीं होगा, फिरभी मर्यादा से आगे गमन नही करना दिव्रत है । परिग्रह मानकर क्षेत्र वास्तु आदि की मर्यादा करना परिग्रहपरिमाणाणु व्रत है । अतः दोनो के अतिचार में अन्तर है। 2