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अनेकान्त 60/4
नित्योदयं दलितमोहमहान्धकारं, गम्यं न राहु वदनस्य न वारिदानम्। विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्पकान्ति,
विद्योतयज्जगदपूर्वशशाङ्कबिम्बम् ।।19 ।। यहाँ भगवान् का मुखकमल विश्व को आलोकित करने वाला विलक्षण एवं अपूर्व चन्द्रमा बतलाया गया है। क्योंकि उनका यह मुख रूपी चन्द्रमा नित्य एवं सर्वत्र उदित होता है, मोहान्धकार को ध्वस्त करता है। इसे मेघ एवं राहु भी ढक नहीं सकते। जबकि जगत् में प्रसिद्ध लौकिक चन्द्रमा में ये सब विशेष कमियाँ हैं।
यहाँ भगवान के मुख में कमलत्व और चन्द्रत्व ये दोनों उपमान की अपनी विलक्षणता लिए हुए हैं। कमल और चन्द्रमा की संगति एक सफल किन्तु विलक्षण प्रयोग है। इस प्रकार इस स्तोत्र का प्रत्येक पद्य रसबोधक तथा अर्थद्योतन में पूर्ण समर्थ है।
अलंकार-योजना __ किसी भी सफल काव्य के उपादानों में अलंकारों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वस्तुतः कवि आपकी भावनाओं को अलंकारों के माध्यम से अत्यधिक सशक्त रूप में अभिव्यक्त करने में सफल होता है। इसी दृष्टि से हमें इस स्तोत्र में भी अलंकार की छटा सर्वत्र दिखलाई देती है। यहाँ उपमा परिकर, अर्थापत्ति, उत्प्रेक्षा, व्यतिरेक एवं दृष्टान्त आदि अनेक अलंकारो का कुशलता से प्रयोग करके कवि ने स्तोत्र में सौन्दर्य की सृष्टि की है। जैसा कि यह पहले ही कहा जा चुका है कि इस संपूर्ण स्तोत्रकाव्य में भाषा, शैली एवं अलंकार आदि कहीं भी आरोपित एवं आयासित नही हैं। वह सहज एवं प्रासादिक है। आ० मानतुंग ने प्रायः अपने इष्टदेव के स्तवन में तुलनात्मक अर्थात् साम्य-वैषम्य मूलक पद्धति को अपनाया है। उसमें भी वैषम्यमूलक शैली (contrastive style) का आधिक्य है। इस शैली से भाव संप्रेषण में स्पष्टता प्रभावकता एवं