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अनेकान्त 60/4
अपने शिशु के साथ असीम वात्सल्य होने के कारण वह हरिणी क्या सिंह से जूझने के लिए तैयार नहीं होती ? होती ही है। इसी तरह भक्त अपनी अज्ञानता से परिचित होते हुए भी स्तुति में प्रवृत्त होता है। यहाँ भक्त कवि ने अपनी उपमा उस मृगी से की है। अतः उपमा अलंकार का यह श्रेष्ठ उदाहरण हैं।
इसी स्तोत्र के “त्वत्संस्तवेन भवसन्ततिसन्निवद्धं" नामक सातवें पद्य के अन्तिम चरण “सूर्याशुभिन्नमिव शार्वरमन्धकरम्” में भगवान् की स्तुति कर्मान्धकार विदारण रूप सामर्थ्य को द्योतित करने के लिए सूर्याशु को उपमान बनाया गया है। इसी प्रकार “मत्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेद... नामक आठवें पद्य, आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोषं नामक पद्य तथा उच्चैरशोकतरुसंश्रित नामक 29 वें पद्य में उपमा अलंकार की छटा देखते ही बनती है।
इसी प्रकार कविने दृष्टान्त अलंकार का प्रयोग भी अनेक पद्यों में किया है। दृष्टान्त अलंकार वह है, जहाँ उपमेय-उपमान में बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव होता है। बुद्ध्या विनापि विबुधार्चितपादमीठ...नामक तृतीय पद्य के “बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दुबिम्ब" इस चरण में भक्त कवि असमर्थता प्रकट करते हैं। इसी तरह दृष्ट्वा भवन्तमनिमेष विलोकनीयम्... नामक 11वें पद्य के “पीत्वा पयः शशिकरद्युतिदुग्ध सिन्धोः- इस चरण में दृष्टान्त अलंकार के साथ अर्थापत्ति का अच्छा प्रयोग हुआ है। इस पद्य में अर्थगर्भी भाषा, माधुर्य गुण तथा उपमा एवं दृष्टान्त अलंकार की छटा मूल भाव को अभिराम बनाती हैं।
स्तुति काव्यों का प्रिय परिकर नामक अलंकार भी यहाँ भरपूर छटा के साथ अनेक पद्यों में विद्यमान है। साभिप्राय विशेषणों का प्रयोग परिकर अलंकार का लक्षण हैं। “नात्यद्भुतं भुवनभूषण भूतनाथ" नामक 10वें “बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित"... नामक 25वें आदि पद्यों में तो परिकर अलंकार की छटा देखते ही बनती है।