Book Title: Anekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 265
________________ अनेकान्त 60/4 सिद्धान्त तिरोहित हो गए हैं। तीर्थकर तो परम अपरिग्रही होते थे और इसी का उपदेश देते हैं, किन्तु आज आचार्यों के अनुयायी व आचार्य स्वयं भी अपनी मान प्रतिष्ठा में परिग्रह के प्रदर्शन से अपने ही उपदेश व जैन धर्म के सिद्धान्तों की अवमानना कर रहे हैं। तीर्थकर अथवा महापुरुष अपनी स्वयं की पूजा का उपदेश कोई नहीं देता। उनका उपदेश तो निर्दिष्ट सन्मार्ग अपनाने का ही होता है। एक बात मैं विशेष तौर पर कहना चाहूंगा क्योंकि यह विचित्र विडम्बना है कि अभिषेक जो एकमात्र जन्म कल्याणक के समय ही निर्दिष्ट है, वीतराग प्रतिमा पर भी किया जाता है जबकि साधु अवस्था में भी स्नान वर्जित है। __महामस्तकाभिषेक महोत्सव अब एक आम बात हो गई है। अभी कुछ समय पूर्व ही हमने श्रवणबेलगोला में महामस्तकाभिषेक महोत्सव देखा। कलशों से अपार धन संग्रह हुआ। यह सच है कि इस धन के उपयोग हेतु कुछ योजनाएं बनाई गई है, किन्तु उसका कार्यान्वयन कैसे होता है। यह भविष्य बतलायेगा। पंचकल्याणक के समय अथवा ऐसे ही महोत्सवों पर कितने धन का अपव्यय हुआ है इसका अनुमान लगाना कठिन है। दिगम्बर जैन समाज में प्रतिवर्ष 500 करोड़ का अपव्यय विधानादि में अनुमानतः होता है। इसकी राशि के ब्याज से अनेक सत्कार्य जैसे औषधालय, विधवा आश्रम, विद्यालय, महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय संचालित किए जा सकते हैं और यदि ऐसा किया तो उससे जैन धर्म की प्रभावना ही बढ़ेगी, किन्तु ऐसा नहीं होता, सारा धन खाने में तथा अन्य अनावश्यक कार्यों में बर्बाद कर दिया जाता है। जैनधर्म की संस्कृति इस बात की ओर इंगित करती है कि विवेक व सादा जीवन, सादा व्यवहार एवं सादा खाना यह आत्मीय गुणों की वृद्धि करता है, किन्तु हमारा आचरण सर्वथा इसके विपरीत है। आपकी बात से मैं सहमत हूं कि जब जलाभिषेक, पंचामृत अभिषेक की बात हम करते हैं तो फिर यह सप्तरंगी अभिषेक कहां से आया ? किस धार्मिक पुस्तक में इसकी व्यवस्था दी गई है ? जैनधर्म में तो तीर्थकरों को भोग लगाने का कोई विधान भी नहीं है फिर सप्तरंगी अभिषेक क्या विधा है। यह केवल मात्र धन का दुरुपयोग है तथा धन का भोंड़ा प्रदर्शन मात्र है।

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