Book Title: Anekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 256
________________ 54 अनेकान्त 60/4 महाकाव्य का एक-एक अध्याय जैसे लगते हैं, जो पूरे मिलकर एक सफल महाकाव्य की सृष्टि करते प्रतीत होते हैं। इस स्तोत्र-काव्य पर परवर्ती मनीषियों द्वारा विभिन्न भाषाओं में लिखित शताधिक टीकाओं, विवेचनाओं, गद्य एवं पद्य विद्या के अनुवादों की विपुल संख्या ही इसकी व्यापक लोकप्रियता की प्रमाण हैं। मनीषियों ने इसके प्रत्येक काव्य को यंत्र-मंत्र एवं तत्सम्बन्धी चमत्कार या अतिशय पूर्ण कथाओं से युक्त मानकर इस सम्पूर्ण स्तोत्र को सर्वसिद्धिदायक संकटहरण स्तोत्र माना है। श्रद्धापूर्वक इसके नियमित पाठ और इसके यंत्र-मंत्रों आदि की साधना से जनसामान्य तक ने अनेक लौकिक-अलौकिक चमत्कार होते देखे और अनुभव किये जाते रहे हैं इसीलिए इसकी तत्सम्बन्धी अनेक अनूभूत कथाओं का प्रचलन हुआ। 11वीं शती के आचार्य प्रभाचन्द्र ने इस स्तोत्र को महाव्याधि नाशक तथा 13वीं शती के एक अन्य प्रभाचन्द्र सूरि ने इसका सर्व-उपद्रव हर्ताके रूप में उल्लेख किया है। अन्य मनीषियों ने भी इसे मान्त्रिक शक्ति से सराबोर माना है। इसीलिए भक्त को अन्तरात्मा से प्रस्फुटित स्तवन, विनती, प्रार्थना और श्रद्धा के रूप में इसका नियमित पारायण अनेक आधि-व्याधियों का विनाशक सिद्ध होता है। वस्तुतः इसके आधार पर भक्त अपने इष्टदेव के गुणों से प्रेरणा लेकर वह अपने मनोबल एवं आत्मबल का ऊर्चीकरण मानता है। वास्तव में इसके प्रत्येक पद्य में मन्त्रों के अक्षरों की ऐसी संयोजना की गई है, जिसकी साधना अपने अभीष्ट लक्ष्य की सिद्धि प्राप्त कराने में पूर्णतः सफल होते हैं। भक्तामर स्तोत्र में रसों की रमणीयता। प्रायः यह आम-धारणा है कि जैन काव्य शान्तरस प्रधान होते हैं। किन्तु यह धारणा यथार्थ नहीं है। शान्तरस जैनाचार्यों की साधना के अनुकूल जरूर है किन्तु साधना और कवि-कर्म में कोई अनिवार्य अनुबंध

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