Book Title: Anekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 255
________________ भक्तामर स्तोत्र में रस और अलंकारो की योजना डॉ० फूलचन्द्र जैन प्रेमी भक्ति काव्यों में स्तोत्र विद्या का अपना विशेष महत्त्व है। जैन धर्म में मूलतः भक्तियों या स्तुतियों की परम्परा काफी प्रचीन है। थुई, थुदि स्तुति, स्तव, स्तवन एवं स्तोत्र के रूप में इसके नामान्तर प्राप्त होते हैं। जैन धर्म का स्तोत्र साहित्य काफी समृद्ध है, किन्तु इस विशाल स्तोत्र साहित्य में शिरोमणि स्तोत्र के रूप में प्रसिद्ध भक्तामर स्तोत्र जन-जन का कण्ठहार बना हुआ है। इस चिर नवीन स्तोत्र के रचयिता सातवीं शती के आचार्य मानतुंग ने प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव एवं उनके गुणों की भक्ति से ओतप्रोत मात्र अड़तालीस वसन्ततिलका छन्दों में इसकी रचना करके अपने को अमर कर लिया है। कवि ने भाव के सार पर इसमें गागर में सागर भरने की उक्ति चरितार्थ की है। अथ से इति तक कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि इसमें रस, अलंकार, छन्द, भाषा, शैली और शब्दयोजना जैसे काव्यात्मक उपादान आरोपित या आयासित हैं। भक्त और भगवान का इतना तादात्म्य सम्बन्ध तथा अपने इष्टदेव के रूप और गुणों का लोक एवं लोकातीत मिश्रित इतना अधिक चित्रण अन्यत्र दुर्लभ ही है। इसमें भावपक्ष के साथ-साथ सखा भाव के भी दिग्दर्शन होते हैं। इसके कवि मात्र भावुक भक्त ही नहीं अपित - एक उत्तरदायित्वपूर्ण सम्पूर्णता के सृष्टा भी हैं। इसलिए कवि ने इसमें कहीं भी अपने स्वयं के सांसारिक आधि-व्याधि आदि कष्टों से उद्धार की प्रार्थना नहीं की। उन्होंने तो मात्र आदि तीर्थकर ऋषभदेव की केवलज्ञानमय समवशरण स्थित अरिहन्त छवि और इसके गुण, अतिशय तथा प्रभाव का सर्वाङ्गीण चित्रण किया है। इसीलिए इसके 48 पद्य मात्र 48 ही नहीं लगते अपितु इसका प्रत्येक पद्य अपने आप में किसी भी

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