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अनेकान्त 60/4
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दिग्व्रत का प्रयोजन
दिग्व्रत का प्रयोजन बताते हुए आचार्य अकलंकदेव ने कहा है कि जो व्यक्ति पूर्ण स्वरूप से हिंसादि से निवृत्त होने में असमर्थ है, परन्तु उसके प्रति आदरशील है, वह श्रावक जीवननिर्वाह हो या न हो, अनेक प्रयोजन होने पर भी स्वीकृत क्षेत्र मर्यादा को नही लॉघता है। अतः हिंसानिवृत्ति होने से वह व्रती है। इसी कारण निरतिचार दिग्व्रती को मर्यादित क्षेत्र के बाहर की अपेक्षा अहिंसा महाव्रती माना गया है। 'हिंसादिसर्वसावधनिवृत्तिरिति महाव्रतत्वमवसेयम्॥१ कहकर अकलंकदेव इसी भाव को अभिव्यक्त करते हैं।
देशव्रत का स्वरूप ___ जीवनपर्यन्त के लिए किये गये दिग्व्रत में और भी संकोच करके घड़ी, घण्टा, दिन, महीना, आदि तक तथा गृह, मोहल्ला आदि तक आना-जाना रखना देशव्रत है। इसमें भी उतने समय तक श्रावक महाव्रती के समान हो जाता है, क्योंकि श्रावक मर्यादा से बाहर के क्षेत्र में पाप से सर्वथा निवृत्त हो जाता है। सर्वार्थसिद्धिकार आचार्य पूज्यपाद ने देशव्रत के स्वरूप का कथन करते हुए स्पष्ट किया है कि 'ग्रामादीनामवधृतपरिमाणप्रदेशो देशः। ततो बहिर्निवृत्तिर्देशविरतिव्रतम् । अर्थात् ग्राम आदि की निश्चित मर्यादा रूप प्रदेश देश कहलाता है। उससे बाहर जाने का त्याग कर देना देशविरति व्रत कहलाता है। ___ लाटीसंहिता में देशव्रत के विषयों का कथन करते हुए मर्यादित देश में गमन करने के त्याग के साथ भोजन करने का त्याग, मैथुन का त्याग तथा मौन धारण करने का समावेश किया गया है। समन्तभद्राचार्य के अनुसार दिग्व्रत में प्रमाण किये हुए विशाल देश में काल के विभाग से प्रतिदिन त्याग करना सो अणुव्रतधारियों का देशावकाशिक व्रत है। तपोवृद्ध गणधरादिक देशावकाशिक क्षेत्र की सीमा घर, गली, ग्राम,