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अनेकान्त 60/4
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आचारांग सूत्र के नौवें अध्ययन में भगवान् महावीर की गृहस्थचर्या और मुनिचर्या दोनों का वर्णन है। चूर्णि की व्याख्या में यह स्पष्ट निर्देश है कि भगवान् विरक्त अवस्था में अप्रासुक आहार, रात्रि भोजन और अब्रह्मचर्य के सेवन का वर्जन कर अपनी चर्या चलाते थे।
इसकी व्याख्या दूसरे नय से भी की जा सकती है। भगवान् महावीर से पूर्व भगवान पार्श्व चातुर्याम धर्म का प्रतिपादन कर रहे थे। उसमें स्त्री-त्याग या ब्रह्मचर्य तथा रात्रि-भोजन विरति इन दोनों का स्वतंत्र स्थान नहीं था। भगवान् महावीर ने पंच महाव्रत धर्म का प्रतिपादन किया। उसके साथ छठे रात्रि भोजन-विरति व्रत को जोड़ा। ये दोनों भगवान महावीर द्वारा दिए गए आचार शास्त्रीय विकास है। दशवैकालिक सूत्र में इसे छठवां व्रत माना गया है। वहां लिखा है
अहावरे छटे भंते! वए राईभोयणाओ वेरमणं। सव्वं भंते रईभोयणं पच्चक्खामि सअसण वा पाणं वा खाइयं वा साइयं वा, नेव सयं राई भजेज्जा नेवन्नेहिं राई भुंजाषेज्जा राइं भुंजते विअन्ने न समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करते पिअन्नं न समणुजाणामि।
तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। भंते! इसके पश्चात् छठे व्रत में रात्रि भोजन की विरति होती है।
भंते! मैं सब प्रकार के रात्रि-भोजन का प्रत्याख्यान करता हूँ। अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य किसी भी वस्तु को रात्रि में मैं स्वयं नहीं खाऊंगा, दूसरों को नहीं खिलाऊंगा और खाने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूंगा, यावज्जीवन के लिए तीन करण तीन योग से- मन से, वचन से न करूंगा, न कराऊंगा, और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा।
भंते मैं अतीत के रात्रि भोजन से निवृत्त होता हूँ, उसकी निंदा करता हूं, गर्दा करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ।