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अनेकान्त 60/3
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एक ऐसा मंत्र है जिस की सिद्धि से विश्व की समस्त समस्याओं का समाधान करना संभव है।
9. अधिकतम कल्याण का विचार
आदिपुराण से प्रतीत होता है कि जिस प्रकार ग्वाला अपने पशु-समूह को कांटे व पत्थरों से रहित तथा शीत व गर्मी की बाधा से शून्य वन में चराता हुआ उनका पोषण करता है, उसी प्रकार राजा को अपने प्रजा का पालन व रक्षण करना चाहिए। “योगक्षेमं प्रयंजीत" से स्पष्ट है कि राजा को योग और क्षेम का प्रयोग करना चाहिए अर्थात् जो वस्तु उनके पास नहीं है वह उन्हें देना चाहिए और जो वस्तु उनके पास है उसकी रक्षा करना चाहिए। तभी प्रजा को अधिकतम कल्याण की प्राप्ति हो सकती है।
10. विनियोजन का विचार ____ आदिपुराण में “स तु न्यायोऽनतिक्रान्त्या धर्मस्यार्थसमर्जनम्। रक्षणं वर्धन चास्य पात्रे च विनियोजनम्।।" से स्पष्ट है कि न्यायपूर्वक धनार्जन, संरक्षण तथा संवर्धन के साथ इसे योग्य पात्र में विनियोजन भी करना चाहिए। शिक्षाव्रत के अतिथिसंविभाग में इसका उद्बोधन है। किन्तु इसके बदले में प्रति-प्राप्ति की आशा नहीं रखना चाहिए। व्याज लेना चाहिए या नही इसका स्पष्ट उल्लेख तो वहीं मिला किन्तु व्रतों की दृष्टि से देखें तो यह एक प्रकार का दान है जो निःकांक्षितभाव से किया जाता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि आदिपुराण में समृद्धि, समानता और संगठन पूर्णतया विकसित है। मानव के सर्वांगीण विकास का पता चलता है। सभी लोग सुसंस्कृत, आर्थिक दृष्टि से समृद्ध और भौतिक व अभौतिक सुख-सष्टि से युक्त हैं। उनका सामाजिक व अध्यात्मिक धर्म आर्थिक विकास में बाधक न होकर साधक रहा है। भरपूर व खुशहाल जीवन जीने के बाद आध्यात्मिकता की शरण में आकर आत्मिक विकास कर