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अनेकान्त 60/4
करें, जिस प्रकार सारथी घोड़ों को संयत रखने का प्रयत्न करता है। मूलाचार में अनगार भावनाधिकार में कहा गया है कि ये इन्द्रिय रूपी घोड़े स्वाभाविक दोष से प्रेरित होते हुए धर्मध्यान रूपी रथ को उन्मार्ग में ले जाते हैं अतः मन रूपी लगाम को मजबूत करो। यहीं पर पाँच इन्द्रियों को व्रत और उपवासों के प्रहारों से वश में करने का विधान किया गया है।
छह आवश्यक
प्रतिदिन अवश्य करणीय कार्यों को आवश्यक कहा जाता है। मूलाचार में कहा गया है कि जो राग-द्वोष आदि के वश नही होता है, वह अवश है तथा उसका करणीय आवश्यक कहलाता है। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार जो अन्य के वश नही है, वह अवश है, उसका कार्य आवश्यक है, जो कर्मों का विनाशक, योग एवं निर्वाण का मार्ग है। 2 मूलाचार तथा श्रमणचर्या विषयक सभी अन्य ग्रन्थों में आवश्यक के छह भेद कहे गये हैं 1. समता अथवा सामायिक, 2. स्तव या चतुर्विशतिस्तव, 3. वन्दना, 4. प्रतिक्रमण, 5 प्रत्याख्यान और 6. व्युत्सर्ग या कायोत्सर्ग।
जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, संयोग-वियोग, मित्र-शत्रु तथा सुख-दुख इत्यादि में समभाव होना सामायिक है। ऋषभ आदि तीर्थकरों का नाम-कथन, गुण-कीर्तन एवं पूजन करके मन-वचन काय से नमस्कार करना स्तव है। अरहन्त, सिद्ध और उनकी प्रतिमा को, तप श्रुत या गुणों में बड़ों को और अपने गुरु को कृतिकर्मपूर्वक या कृतिकर्म के बिना मन-वचन-काय से प्रणाम करना वन्दना है। निन्दा एवं गर्हापूर्वक मन-वचन-काय के द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव के विषय में किये गये उपराधों का शोधन करना प्रतिक्रमण है। भविष्य में आने वाले नाम, स्थापना आदि पाप के आगमहेतुओं का त्याग करना प्रत्याख्यान है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि अतीत के दोषों का निराकरण प्रतिक्रमण तथा