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अनेकान्त 60/4
वाहन जिस मार्ग से अनेक बार गमन कर जाते हैं, वह मार्ग प्रासक है। हाथी, घोड़े, गधा, ऊँट, गाय, भैंस, बकरी या भेड़ें जिस मार्ग से अनेक बार चलते हैं, वह मार्ग प्रासुक हो जाता है। जिस पर स्त्री-पुरुष चलते रहते हैं, जो आतप आदि से तप्त हो चुका है तथा जो शस्त्रों से क्षुण्ण हो गया है, वह मार्ग प्रासुक हो जाता है।26
मूलाचार में साधु के विहार के सम्बन्ध में कहा गया है कि गुरु से पूछकर उनसे आज्ञा लेकर मुनि अपने सहित चार, तीन या दो साथियों के साथ विहार करे। तप, सूत्र, सत्त्व, एकत्वभाव, संहनन और धैर्य से परिपूर्ण, दीक्षा और आगमन में बली मुनि एकलविहारी भी स्वीकार किया गया है। गमन, आगमन, सोना, बैठना, किसी वस्तु को ग्रहण करना, आहार लेना और मल-मूत्र विसर्जन करने में स्वच्छन्द तथा बोलने में स्वच्छन्द रुचि वाले मुनि को ‘मा मे सत्तूवि एकागी' (मेरा शत्रु भी एकलविहारी न होवे) कहकर एकलविहारी होने का निषेध किया गया है। एकाकी विहार से गुरुनिन्दा, श्रुतविनाश, तीर्थ की मलिनता, मूढता, आकुलता, कुशीलता एवं पार्श्वस्थता दोष आ जाते हैं। वह कॉटे, ट्रॅठ, विरोधी, कुत्ता, बैल, सर्प, म्लेच्छजन, विष, अजीर्ण आदि रोगों से विपत्ति को प्राप्त हो जाता है। एकाकी रहने वाले के आज्ञा का उल्लंघन, अनवस्था, मिथ्यात्वसेवन, आत्मनाश, संयमविराधना ये पाँच पापस्थान उत्पन्न हो जाते हैं।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मूलाचार में अनियत विहार का विधान करते हुए साधु के स्वच्छन्द एकल विहार का निषेध किया गया है। श्रमण का व्यवहार अट्ठाईस मूलगुणों के परिपालन वाला, आहार पूर्णतः शुद्ध तथा विहार अनियत एवं ससंघ या स्वच्छन्द एकलविहारहीन होना चाहिए।
(ख) वर्तमान श्रमणचर्या
आज भी अनेक श्रमण 28 मूल गुणों के निरतिचार पालक हैं। जैन