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अनेकान्त 60/4
भावार्थ : एकल विहारी मुनि के सर्वज्ञ देव की आज्ञा का उल्लंघन, अनवस्था अर्थात् अन्य मुनि भी उसे एकाकी देखकर वैसी ही प्रवृत्ति करने लग जायेगें, लोगों के संपर्क होने से अपना सम्यक्त्व छूट जाना और मिथ्यात्वियों के संसर्ग से मिथ्यात्व का सेवन या संस्कार वन जाना, अपने सम्यक्त्व आदि गुणों का नाश होने से आत्मनाश तथा मर्यादा रहित स्वच्छंद इच्छानुसार जीवन हो जाने से संयम की भी विराधना हो जाती है।
उपरोक्त आपत्तियों के कारण श्री मूलाचार में एकल विहार की आज्ञा नहीं है। फिर भी यदि किसी साधु को विशेष अध्ययन आदि के लिये किसी अन्य संघ में या अन्य आचार्य के पास जाना पड़े तो उसे किस प्रकार जाना चाहिये ? इसके उत्तर में आचार्य कहते हैं :
एवं आपुच्छित्ता सगवर गुरुणा विसज्जिओ संतो।
अप्पचउत्थो तदिओ वासो तदो णीदी।।147।। अर्थः इस प्रकार गुरु से पूछकर अर्थात् आज्ञा प्राप्त कर, अपने गुरु से मुक्त होकर वह अपने सहित चार, तीन या दो होकर वहाँ से चला जाता है। अर्थात् एकाकी नहीं जाता।
इस गाथा के अर्थ में वर्तमान में कुछ स्वाध्यायी जन स्वेच्छा से अर्थ करने लगे हैं। उनका कहना है कि कम से कम दो समलिंगी अर्थात् साधु हों, तब ही विहार होता है। पर ऐसा अर्थ न तो गाथा से निकल रहा है और न टीका से ही। टीका में भी इस प्रकार कहा है। “एवमापृच्छ्य स्वकीयवरगुरुभिश्च विसृष्टः सन् आत्मचतुर्थो निर्गच्छति, आत्मतृतीय आत्मद्वितीयो वा उत्कृष्टमध्यमजघन्य भेदात्"। अर्थ इस प्रकार पूछकर, अपने गुरु से अलग होता हुआ अपने सहित चार, तीन या दो होकर, उत्कृष्ट मध्यम जघन्य के भेद से, चला जाता है। इसी टीकार्थ में भी समलिंगी का कोई वर्णन नहीं है। श्री मूलाचार के अलावा अन्य भी किसी श्रमणाचार प्ररूपक ग्रंथ में कम से कम दो समलिंगी