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अनेकान्त 60/4
गुरूपरिवादो सुदवुच्छेदो तित्यस्स मइलणा जडदा । भिंभल कुसील पार्श्वस्थता य उस्सार कप्पम्हि | |151 ।। अर्थ: स्वेछाचार की प्रवृति में गुरु की निंदा, श्रुत का विनाश, तीर्थ की मलिनता, मूढता, आकुलता, कुशीलता और पार्श्वस्थता ये दोष आते हैं ।
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आचार वृत्तिः संघ को छोड़कर एकाकी विहार करने पर उस मुनि के गुरु का तिरस्कार होता है । इस शीलशून्य मुनि को किसने मूंड दिया है ऐसा लोग कहने लगते हैं । श्रुत की परंपरा का विच्छेद होता है अर्थात् ऐसे एकाकी अनर्गल साधु को देखकर अन्य मुनि भी ऐसे हो जाते हैं, पुनः कुछ अन्य मुनि भी देखा-देखी अपने गुरु के संघ में रहते हैं । तब शास्त्रों के अर्थ को ग्रहण न करने से श्रुत का नाश हो जाता है। इस जैन शासन में सभी मुनि ऐसे स्वच्छंद ही होते हैं, ऐसा मिथ्यादृष्टि लोग कहने लगते हैं, इससे तीर्थ की मलिनता हेती है । तथा उस मुनि में स्वयं मूर्खता, आकुलता, कुशीलता (ब्रह्मचर्य का नाश ) और पार्श्वस्थ (शिथिलाचार) रूप दुर्गुण प्रवेश कर जाते हैं। इसी ग्रंथ में एकाकी विहार करने वाले मुनि को पाप श्रमण कहा है।
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आचरिय कुलं मुच्चा विहरइ एगागिणी य जो समणी । जिणवयणं णिंदतो सच्छंदो होइ मिगचारी । (टि. पृष्ठ 438 ) अर्थ: आचार्य के संघ को छोड़कर जो एकाकी विहार करते हैं, स्वछंद प्रवृत्ति रखते हैं, वे मृगचारी मुनि कहलाते हैं । ये वंदना के योग्य नहीं होते ।
आयरिलकुलं मुच्चाविहरदि समणो य जो दु एगागी । णय गेहदि उवदेसं पावस्सणोत्ति वुच्चदि दु । 1961 ।। अर्थ: जो श्रमण आचार्य संघ को छोड़कर एकाकी विहार करता है, और उपदेश को ग्रहण नहीं करता है वह पाप श्रमण कहलाता है।
आ० कुन्दकुन्द ने भी सूत्रप्राभृत में इस प्रकार कहा है :