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अनेकान्त 60/4
इस प्रकार विहार करते हुये उन मुनिराजों के परिणाम कैसे होते हैं, इसके लिए कहा है :
उवसंतादीणमणा उवक्खसीला हवंति मज्झत्था। णिहुदा अलोलमसठा अविझिया कामभोगेसु ।। 806 ।। अर्थ - वे उपशान्त भावी (कषाय भाव से रहित), दैन्यवृत्ति से रहित उपेक्षा स्वभाव वाले (किसी से कोई अपेक्षा न रखने वाले), पंचेन्द्रिय विजयी, निर्लोभी (किसी से कुछ भी न चाहने वाले), मूर्खता रहित और कामभोगों में विस्मय रहित होते हैं।
ते णिम्ममा सरीरे जत्यत्यमिदा वसति अणिएदा।
सवणा अप्पडिबद्धा विज्जू जह दिट्ठणट्ठा वा।। 786 ।। अर्थ वे शरीर से ममता रहित ये मुनि आवास रहित होते हैं। जहाँ पर सूर्य अस्त हुआ वहीं ठहर जाते हैं, किसी से कुछ भी अपेक्षा नहीं करते हैं, तथा बंधे हुए नहीं रहते हैं अर्थात् स्वतन्त्र होते हैं। बिजली के समान दिखकर विलीन हो जाते हैं अर्थात् एक स्थान पर अधिक नहीं ठहरते हैं।
ये अनियत विहार वाले मुनि महाराज एक स्थान पर कितने समय तक ठहरते हैं, इस सम्बन्धमें इस प्रकार कहा है :
गामेयरादिवासी पयरे पंचाहवासिणो धीरा।।
सवणा फासविहारी विक्तिएगंतवासी य।। 787 ।। अर्थ ग्राम में एक रात्रि निवास करते हैं और नगर में पाँच दिन निवास करते हैं। प्रासुक विहारी हैं और विविक्त एकान्तवास करने वाले हैं, ऐसे श्रमण धीर होते हैं। विशेषार्थ ग्राम में एक रात्रि निवास करते हैं क्योंकि एक रात्रि में ही वहाँ का सर्व अनुभव आ जाता है। नगर में पाँच दिवस ठहरते हैं क्योंकि पाँच दिन में वहाँ के सर्व तीर्थ आदि यात्राओं की सिद्धि हो जाती है। आगे अधिक रहने से वहाँ के निवासियों अथवा वसतिका आदि से ममत्व की उत्पत्ति देखी जाती है।