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तत्वार्थसूत्र में गुणव्रत
डॉ० जयकुमार जैन
व्रत का स्वरूप __जैन परम्परा में व्रत शब्द की प्रवृत्तिपरक एवं निवृत्तिपरक परिभाषायें कही गई हैं। तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य उमास्वामी ने व्रतसामान्य का लक्षण करते हुए कहा है हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरति व्रतम्।" अर्थात् हिंसा, अस्तेय, चोरी, कुशील एवं परिग्रह से निवृत्त होना व्रत है। यह व्रत की निवृत्तिपरक परिभाषा है। ‘वृतु वर्तने' क्रिया से निष्पन्न होने के कारण मूलतः व्रत शब्द प्रवृत्तिपरक है। अतः स्पष्ट है शुभ कर्मों में प्रवृत्ति का नाम भी व्रत है। इसीकारण पूज्यपाद ने व्रत की प्रवृत्तिपरक एवं निवृत्तिपरक उभयविध परिभाषा की है 'व्रतमभिसन्धिकृतो नियमः। इदं कर्तव्यमिदं न कर्तव्यमिति वा। अर्थात् प्रतिज्ञा करके जो नियम लिया जाता है वह व्रत है। यह करणीय है, यह करणीय नही है इस प्रकार नियम लेने का नाम व्रत है। इसीलिए सागारधर्मामृतकार पं० आशाधर जी ने लिखा है कि
'संकल्पपूर्वकः सेव्ये नियमोऽशुभकर्मणः।
निवृत्तिर्वा व्रतं स्याद्वा प्रवृत्तिः शुभकर्मकणि।। अर्थात् किन्हीं पदार्थों के सेवन का अथवा हिंसादि अशुभ कर्मों का नियत या अनियत काल के लिए संकल्पपूर्वक त्याग करना व्रत है। संकल्पपूर्वक पात्रदान आदि शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करना व्रत है। इस कथन में व्रत में पाप से निवृत्ति तथा शुभ में प्रवृत्ति दोनों स्वीकार की गई हैं।
व्रती के भेद
जैनाचार्य के परिपालक व्रती के दो भेद हैं
अगारी और अनगारी।