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अनेकान्त 60/4
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जन्तुरहित स्थानों में विहार करने वाले होते हैं। स्त्री, पशु तथा नपुंसक आदि से रहित एकान्त एवं शान्त प्रदेश में निवास करने वाले होते हैं।
साधुओं का विहारकाल दो प्रकार का कहा गया है एक वर्षाकाल और दूसरा ऋतुकाल। अनगारधर्मामृत के अनुसार वर्षाकाल में चारों ओर हरियाली हो जाने से एवं पृथ्वी पर वस-स्थावर जीवों की बहु उत्पत्ति हो जाने के कारण प्राणी संयम का पालन कठिन हो जाता है। इसलिए वे मुनिराज वर्षाकाल में आषाढ़ सुदी चतुर्दशी से कार्तिक कृष्णा अमावस्या तक एक ही स्थान पर रुक जाते हैं। विशेष परिस्थितियों में कुछ अधिक समय तक भी रुक सकते हैं। दूसरा ऋतुकाल हैं जिसमें बसन्तादि छहों ऋतुओं में स्वाध्याय आदि के निमित्त गुरु आज्ञा पूर्वक एक ऋतु में एक माह तक, एक स्थान पर, रुकने का प्रावधान है। ऐसे मुनिराजों के बारे में और भी कहा है :
वसधिसु अप्पडिबद्धा ण ते ममत्तिं करेंति वसधीसु ।
सुण्णागारमसाणे वसति ते वीरवसधीसु।। 790 ।। अर्थ वसति से बंधे हए नहीं होते हैं, अतः वे वसति में ममत्व नहीं करते हैं, वे शून्य स्थान श्मशान ऐसी वीर वसतिकाओं में निवास करते हैं।। 790 ।। __ आचारवृत्ति-वसतिकाओं में जो प्रतिबद्ध नहीं होते, अर्थात् यह मेरा आश्रय स्थान है, यहीं पर मैं रहूँ इस प्रकार के अभिप्राय से रहित रहते हैं तथा वसतिकाओं में ममत्व नहीं करते हैं, अर्थात् निवास निमित्तक मोह से रहित होते हैं, वे साधु शून्य मकानों में, श्मशान भूमि प्रेतवनों में ठहरते हैं। वे वीर पुरुषों से अधिष्ठित महाभयंकर स्थानों में निवास करते हैं तथा सुन्दर एवं सुविधाजनक वसतिका में आसक्ति नहीं रखते
सीहा इव णरसीहा पव्वयतडकडयकंदरगुहासु। जिणवयणनणुमणंता अणुविग्गमणा परिवसंति।। 794 ।।