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अनेकान्त 60/4
वसधीसु य उवधीसु य गामे णयरे गणे य सण्णिजणे।
सव्वत्थ अपडिबद्धो समासदो अणियदविहारो।। 155 ।। अर्थ वसतियों में और उपकरणों में, ग्राम में, नगर में, संघ में और श्रावकजन में 'सर्वत्र यह मेरा है' इस प्रकार के संकल्प से रहित साधु संक्षेप से अनियत विहारी होता है। ____ भावार्थ अनियत विहार वही माना जाता है जहाँ किसी वसतिका में वहाँ मौजूद तख, चौकी आदि उपकरणों में, ग्राम में, नगर में, संघ में तथा विभिन्न स्थानों पर रहने वाले स्त्री-पुरुषों में या उनकी व्यवस्थाओं में 'यह मेरा है', इस प्रकार का संकल्प न हो। ____ श्री अमितगति आचार्य विरचित योगसारप्राभृत में भी इस प्रकार कहा है :
उपधौ वसतौ संघे विहारे भोजने जने।
प्रतिबन्धं न बध्नाति निर्ममत्वमधिष्ठितः।। 14 ।। अर्थ जो योगी ममत्व रहित हो गया है, वह उपाधि अर्थात् परिग्रह में, वसतिका अर्थात् आवास स्थान में, चतुर्विध संघ में, विहार में, भोजन में, उस स्थान के निवासियों में प्रतिबंध को नहीं बांधता अर्थात् किसी के भी साथ राग का कोई बन्धन नहीं बांधता है। योगी के लिए पर पदार्थों में ममत्व छोड़ना अत्यन्त आवश्यक है तभी उसकी योग साधना ठीक प्रकार से हो सकेगी। अन्य वस्तुओं में ममकार और अहंकार, जिनलिंग धारण के लक्ष्य को बिगाड़ने वाला और संसार परिभ्रमण का कारण है।
साधु को किन स्थानों पर निवास करना चाहिए, इस सम्बन्ध में सर्वोपयोगी श्लोक संग्रह के निम्नलिखित श्लोक अत्यन्त उपयोगी हैं।
ज्ञानविज्ञानसम्पन्ना व्रतशीलादिमण्डिताः। जिनभक्ताः सदाचाराः गुरुसेवापरायणाः।। 8 ।। नीतिमार्गरता जैना धनधान्यादिसंकुलाः।