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अनेकान्त 60/4
तथा चास्वामिकां नारी स्वाश्रमे स्वयमागताम् ।। 2303 ।। अतो जातु न विद्येत क्वचित्काले निजेच्छया।
एकाकिन्यार्यिकायाश्च विहारो गमनादिकः।। 2304।। अर्थ : जिस प्रकार पकाया हुआ भात आसानी से खाया जा सकता है, उसी प्रकार बिना स्वामी की स्त्री यदि स्वयं अपने आश्रम में व घर में आ जाय तो वह आसानी से भोगी जा सकती है। इसलिए अकेली आर्यिका को अपनी इच्छानुसार किसी भी समय में विहार और गमन आदि कभी नहीं करना चाहिए।
श्री मूलाचार की दृष्टि में अनियत विहार
अनियत विहार का तात्पर्य उस विहार या गमन से है जो अस्थायी (एक स्थान पर कितने दिन टिकेंगे इसका पता न होना), अनिश्चित (किस तरफ विहार होगा इसका होगा इसका तय न होना), असीम (ये आगे कहाँ तक जायेंगे उसकी सीमा का निर्धारण न होना), अनियन्त्रित (अपनी मर्जी से गमन होना उस पर किसी का नियन्त्रण न होना), तथा आकस्मिक (बिना किसी को बताये हुए अचानक विहार हो जाना) होता है। दिगम्बर मुनि का विहार उपर्युक्त सभी विशेषणों से अलंकृत होता है, जैसे पूज्य आ. विद्यासागर जी महाराज का जब फिरोजाबाद में चातुर्मास चल रहा था तब दीपावली के उपरान्त विभिन्न विषयों पर प्रवचन श्रृंखला चल रही थी। अगले दिन प्रवचन ‘अतिथि' विषय पर घोषित कर दिया गया था। अगले दिन प्रातः 7.00 बजे अचानक पूज्य आचार्य श्री ने विहार कर दिया। जब साधर्मी भाईयों को इसकी भनक लगी, तो फिरोजाबाद में सब तरफ अफरातफरी मच गई। सभी लोग पूज्य आर्चायश्री के पास दौड़ पड़े और निवेदन किया कि महाराज जी, आज का प्रवचन ‘अतिथि' पर तो हो जाना चाहिए था, फिर विहार होना चाहिये था। पूज्य आचार्य श्री मुस्कराकर बोले मेरा यह अचानक विहार ही अतिथि पर प्रवचन है। ऐसे विहार को अनियत विहार कहा