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अनेकान्त 60/4 __ अर्थ : जो मुनि अकेले ही अपनी इच्छानुसार चाहे जहाँ निवास करते हैं, चाहे जहाँ विहार करते हैं, उनके सर्वश्रेष्ठ गुण नष्ट हो जाते हैं और करोड़ों दोष प्रति दिन बढते रहते हैं ।। 2224 ।।
यह पंचम काल मिथ्यादृष्टि और दुष्टों से भरा हुआ है। तथा इस काल में जो मुनि होते हैं वे हीनसंहनन को धारण करने वाले और चंचल होते हैं। ऐसे मुनियों को इस पंचमकाल में दो, तीन, चार आदि की संख्या के समुदाय से ही निवास, विहार तथा कायोत्सर्ग करना कहा गया है। ।। 2225 2226 ।।
उपरोक्त सभी प्रसंगों को ध्यान में रखते हुये संक्षेप से हम कह सकते हैं कि श्री मूलाचार के अनुसार एकल विहार को अच्छा नहीं माना गया है, परन्तु फिर भी गुरु की आज्ञा लेकर दृढ़ चारित्र एवं संहनन वाले साधु अन्य किसी एक, दो आदि के साथ विहार कर सकते हैं, एकदम अकेले विहार नहीं।
यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि चा० च० आचार्य शांतिसागर जी महाराज ने भी 4 वर्ष तक अकेले ही विहार किया था, आ० ज्ञानसागर जी, मुनि चन्द्रसागर जी, मुनि अनंतकीर्ति जी आदि महान् उत्कृष्ट चर्या वाले साधुओं ने भी वर्षों तक अकेले ही विहार किया था। इससे स्पष्ट है कि यद्यपि एकल विहार से शिथिलाचार को बल मिलता है, फिर भी गुरु आज्ञा से योग्य साधु के एकल विहार का सर्वथा निषेध नहीं है। ___ जहाँ तक आर्यिकाओं का प्रश्न है, उनके लिये एकल विहार की बिलकुल आज्ञा नहीं है। श्री मूलाचार प्रदीप में आर्यिकाओं के लिए इस प्रकार कहा है :
यतो यथात्र सिद्धान्नं भोक्तुं सुखेन शक्यते।