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अनेकान्त 60/4
होने का वर्णन नहीं मिलता। फिर अपनी मनमर्जी से अर्थ का अनर्थ नहीं करना चाहिए। अर्थात् सही अर्थ तो यही निकल रहा है कि वह मुनि, अकेला न जाकर, अन्य एक, दो, या तीन के साथ गमन करे। यहाँ पर श्री आचारसार के निम्न श्लोक पर भी दृष्टिपात करना आवश्यक है :
इत्येवं वहुशः स्पृष्ट्वा, लब्ध्वानुज्ञां गुरोव्रजेत् ।
व्रतिनैकेन वा द्वाभ्यां, बहुभिः सह नान्यथा ।।26 ।। अर्थः इस प्रकार यह बारंबार पूछकर गुरु की अनुमति को प्राप्तकर एक, दो अथवा बहुत व्रतियों के साथ जावे, अकेला नहीं जावे।
विशेष यहाँ भी 'वतिना' शब्द दिया है, मुनिना नहीं दिया। यदि आचार्य को समलिंगी ही कहना होता, तो 'मुनिना' लिखना था, पर ऐसा नहीं किया। इससे भी यह स्पष्ट हो रहा है कि आचार्य को समलिंगी वाले नियम का प्रसंग स्वीकार नहीं है।
श्री मूलाचार में साधु का विहार दो प्रकार का बताया
गिहिदत्ये य विहारो विदिओऽगिहिदत्य संसिदो चेव।
एत्तो तदियविहारो गाणुण्णादो जिणवरेहिं ।।148 ।। अर्थः गृहीतार्थ नाम का एक विहार है और अगृहीतार्थ से सहित विहार दूसरा है। इनसे अतिरिक्त तीसरा कोई भी विहार जिनेन्द्र देव ने स्वीकार नही किया है। आचारवृत्ति गृहीता जान लिया है अर्थ तत्वों जीवादि को जिन्होंने, उनका विहार गृहीतार्थ है यह पहला विहार है अर्थात् जो जीवादि पदार्थों के ज्ञाता महासाधु देशांतर में गमन करते हुये चारित्र का अनुष्ठान करते हैं उनका विहार गृहीतार्थ विहार है। यह साधु एकल विहारी होता है। दूसरा विहार अगृहीत अर्थ से सहित का है। इनके अतिरिक्त तीसरा विहार अर्हन्तदेव ने स्वीकार नहीं किया हैं।
विशेष यहाँ टीकाकार का अभिप्राय यह है कि गृहीतार्थ विहार