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अनेकान्त 60/4
है। इन अट्ठाईस मूलगुणों में श्रमण की आहारचर्या, विहारचर्या एवं प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप व्यवहार व्यवस्था समाविष्ट है, किन्तु मूलाचार के मूलागुणाधिकार से भिन्न अन्य अधिकारों में भी इनका महत्त्वपूर्ण विवेचन हुआ है। इसे संक्षेप में इस प्रकार देखा जा सकता है।
आहारचर्या ___ औदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीन शरीरों और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों के ग्रहण को आहार कहते हैं। 7 आचार्य बट्टकेर ने मूलाचार के पिण्डशुद्धि नामक अधिकार में साधु की आहारचर्या का तथा उसकी शुद्धि का विस्तृत विवेचन किया है। आहार के छ्यालिस दोषों का वर्णन करते हुए श्री बट्टकेर आचार्य ने कहा है कि श्रमण छह कारणों से आहार ग्रहण करने पर भी धर्म का आचरण करतें हैं तथा छह कारणों से आहार का त्याग करने पर भी धर्म का आचरण करते हैं। वे 1. वेदना शमन हेतु, 2. वैयावृत्ति के लिए, 3. क्रियाओं के लिए, 4. संयम के लिए, 5. प्राणों की चिन्ता तथा 6. धर्म की चिन्ता के लिए आहार ग्रहण करते हैं। 1. आतंक होने पर, 2. उपसर्ग आने पर, 3. ब्रह्मचर्य की रक्षा हेतु, 4. प्राणियों पर दया के लिए, 5. तप के लिए और 6. संन्यास के लिए आहार त्याग करते हैं। साधु को चाहिए कि वे बल, आयु, स्वाद, शरीरपुष्टि या तेज के लिए आहार ग्रहण न करें अपितु ज्ञान सयम एव ध्यान के लिए आहार ग्रहण करें। (मूला. 478, 481)
श्रमण प्रासुक भोजन ही ग्रहण करते हैं किन्तु यदि प्रासुक भोजन भी अपने लिए बना हो तो वह भाव से अशुद्ध ही समझना चाहिए। उन्हें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव एवं बलवीर्य को जानकर जिनमतोक्त एषणा समिति का पालन करना चाहिए।19 (मू. 485, 490)
आहार के परिमाण का कथन करते हुए कहा गया है कि उदर का आधा भाग भोजन से भरे, तीसरा भाग जल से भरे तथा चौथा भाग