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अनेकान्त 60/4 शक्ति प्रदर्शन को आधार बना सकता है ? क्या योजना आयोग की तरह कोई साधु अपने कार्यक्रमों की परिपूर्ति न देखकर स्वयं को एक महानगर से कुछ ही समय में अन्य महानगर में स्थानान्तरित कर सकता है ? क्या दिन में औसत 30-35 कि.मी. चलकर ईर्या समिति पाली जा सकती है ? अन्यों को समितियों का पाठ पढ़ाने वाले पाठक साधु स्वयं विचार करें तो अच्छा है। साधु की भाषा समिति का प्रत्यक्ष दर्शन तो गुवाहाटी दशलक्षण प्रवास में मैंने स्वयं किया है, जहाँ एक बहिन से साधु ने यथेच्छ दान-चन्दा न देने पर तथा अपने पुत्र से पूछकर देने की बात कहने पर कहा कि क्या तुम अपने पति के साथ रति भी अपने पुत्र से पूछकर करती हो ? बहुत बवाल मचा समाज में, किन्तु अर्थार्थी भक्तों की कमी नहीं है। अब वे अन्य राजधानी में अपना डंका बजा रहें हैं ? इच्छानुसार आहार बनवाना तथा फ्लश के शौचालयों का उपयोग करना क्या समितियों के परिपालन में बाधक नहीं है ? यदि नहीं तो फिर मूलगणों से इन्हें हटाने का उपक्रम साधु समाज को करना चाहिए।
दिशाबोध में ‘अन्जामें गुलिस्ता क्या होगा ?' कहकर अनेक प्रश्न उठाये गये हैं। उनमें से एक प्रश्न उठाकर मैं कतिपय साधुओं के इन्द्रिय निरोध की ओर दिशाबोध के सम्पादक की ओर से इशारा करना चाहता
हूँ
____ “विचारणीय है कि पाँच इन्द्रियों के विषयों का निग्रह करने वाला सन्त क्या सेंट या ईतर का प्रयोग कर सकता है ? क्या मधुर संगीत की रागिनी का दीवाना होना उसके लिए उचित है ? क्या चाटुकारों की भीड़ इकट्ठी कर कविसम्मेलनों में एक मुनि का बैठना उचित है ? क्या मात्र रसना इन्द्रिय का निग्रह ही एकमात्र साधना है।''30
दिशाबोध की उक्त टिप्पणी बहुत कुछ कहती है। विचार करें।
साधुओं के द्वारा तन्त्र-मन्त्र का लौकिक कार्यों के लिए प्रयोग अविचारितरम्य हो सकता है। इस विषय में श्री सुरेश जैन सरल के