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अनेकान्त 60/3
परोपकारनिरपेक्षं इंगिनीमरणम्। आत्मपरोपकार सव्यपेक्षं
भक्तप्रत्याख्यानमिति। [ध/1/1,1,1/23/24] अर्थात् अपने और पर के उपकार की अपेक्षा रहित समाधिमरण करना प्रायोपगमन है तथा जिस संन्यास में अपने द्वारा किये गये वैय्यावृत्य आदि उपकार की अपेक्षा सर्वथा नहीं रहती, उसे इंगिनीमरण समाधि कहते हैं। इसी प्रकार जिस संन्यास में अपने और दूसरे-दोनों के द्वारा किये गये उपकार की अपेक्षा रहती है, उसे भक्तप्रत्याख्यान संन्यास कहते हैं।
वर्तमान में भक्तप्रत्याख्यान मरण ही उपयुक्त है। अन्य दो अर्थात् इंगिनीमरण तथा प्रायोपगमन सम्भव नहीं हैं, क्योंकि ये दो मरण संहनन विशेष वालों के ही होते हैं। इंगिनीमरण के धारक मुनि प्रथम तीन (वज्रवृषभ नाराच, वज्रनाराच तथा नाराच) संहननों में से कोई एक संहनन के धारक रहते हैं। किन्तु इस पंचम काल में मात्र असंप्राप्तासपाटिका संहनन ही होता है अतएव भक्तप्रत्याख्यान मरण ही संभव है। 5. भक्तप्रत्याख्यान की स्थिति धवलाकार वीरसेन स्वामी ने भक्तप्रत्याख्यान के जघन्य मध्यम और उत्तम इन तीन भेदों का वर्णन करते हुए कहा है कि
तत्र भक्तप्रत्याख्यानं त्रिविधं जघन्योत्कृष्टमध्यमभेदात् । जघन्यमन्तर्मुहूर्तप्रमाणम्। उत्कृष्टभक्तप्रत्याख्यानं द्वादश
वर्षप्रमाणम् । मध्यमेतयोरन्तरालामिति ।। अर्थात् भक्तप्रत्याख्यान की विधि जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार की है। जघन्य का प्रमाण अन्तर्मुहूर्त मात्र है। उत्कृष्ट का बारह वर्ष है। इन दोनों का अन्तरालवर्ती सर्व काल प्रमाण मध्यम भक्तप्रत्याख्यान मरण का है। 6. सल्लेखना योग्य स्थान योग्य स्थान विशेष के प्रसङ्ग में पं. आशाधर जी कहते हैं कि उपसर्ग से यदि कदलीघात मरण की स्थिति उत्पन्न हो तो साधक योग्य स्थान का विकल्प त्यागकर भक्तप्रत्याख्यान मरण को धारण करे। इसी विषय