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अनेकान्त 603
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भावनात्मक दृष्टि से पंचामृत अभिषेक करने का अभिप्राय दिगम्बर परम्परा के अनुरूप नहीं है।
रविपेण ने सर्ग 27 में जनक द्वारा म्मलेच्छों के पराजय हेतु राजा दशरथ के श्रावकों की धार्मिकता का वर्णन करते हुए, उन्हें पुराने धान
आदि से पाच प्रकार के यज्ञ करने वाला दर्शाया है। यह बिन्दु भी विचारणीय है (श्लोक 20)। दोनों ग्रन्थों की सूक्ष्म तुलना करने पर अन्य आगमिक विसंगतियां ज्ञात हो सकती हैं।
4. महापुराण पुराण परम्परा का मुकुटमणि रूप है। इसकी रचना महाकवि आचार्य जिनसेन महाराज (ई.800-843) ने नौवीं शती में की थी। दक्षिण भारत उस समय सांस्कृतिक संघर्ष के दौर में था। वौद्ध, शैव और वैष्णव धर्मों के साथ अंतर-बाह्य संघर्ष चल रहा था। धर्म-विद्वेषी राजाओं के सर्वनाशी प्रहार हो जाते थे तो कभी राजाश्रय का अपरिमित लाभ भी मिल जाता था। फिर भी सास्कृतिक दार्शनिक संघर्प तो निरंतर बना ही रहा। ऐसे समय में महापुराण की रचना हुई। न्यायाचार्य पं. महेन्द्र कुमार जी के मतानुसार 'आ. जिनसेन ने भं. महावीर की उदारतम संस्कृति को न भूलते हए ब्राह्मण-क्रिया काड के जैनीकरण का सामायिक प्रयास किया था।' महापुराण में जेन दर्शन, धर्म और संस्कृति के टार्शनिक एवं व्यावहारिक पक्ष सविस्तार दीया है। गर्भान्वय की 53 क्रियाएं, दीक्षान्वय की 48 क्रियाग (अवतार आदि आट क्रियाओं के साथ गर्भान्वय की 14 वीं उपनीति से अग्रनिवृत्ति तक की तिरपनवी क्रिया तक 8 + 40 = 48) तथा कन्चिय की 7 क्रियाओं का भी वर्णन है। पूजा के भेद और स्वरूप को भी दर्शाया है। पर्व 13 में जिन बालक ऋषभदेव कं जन्माभिपंक तथा पर्व 17 में निष्क्रमणाभिषेक का वर्णन है, जो क्षीरसागर के निर्मल जल से सम्पन्न हुआ था। किन्न महापुराणकार आचार्य जिनसेन नं चारी प्रकार की पूजाओं के पूर्व या पश्चात पंचामृत अभिपंक का वर्णन नहीं किया है। उक्त गर्भाधान क्रियाओं में भी पंचामृत अभिषेक की कोई मान्यता या निर्देश नहीं किया है। उपासकाचार सूत्रों का मदर्भ दिया है। यज्ञोपवीत