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अनेकान्त 60/3
मूर्ति पर सर्वोपधि, चंदन लेप कर 'कालपूजा' में उसकी शुद्धि करते हैं। पश्चात् जलाभिषेक ही होता है । आगमिक संदर्भ सावधानी पूर्वक समझें ।
पंचामृत अभिषेक श्वेताम्बर परम्परा एवं वैदिक परम्परा से प्रभावित और पल्लवित है । यद्यपि इस परम्परा का बीजारोपण सातवीं शती में आचार्य रविपेण ने किया किन्तु दसवीं शती में आचार्य सोमदेव ने पल्लवित किया । मूल संघ से भिन्न अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखने हेतु माथुर संघ, काष्ठासंघ ने शिथिलाचार को आगे बढ़ाया यापनीय संघ एवं भट्टारक परम्परा ने इसे पुष्ट किया । इस दृष्टि से डॉ. वासुदेव उपाध्याय जैसे निष्पक्ष इतिहास मनीषियों के निष्कर्ष यथार्थता के निकट हैं। समग्रता मं आगम एवं इतिहास के परिप्रेक्ष्य में विचारणीय है ।
पूज्य आचार्य विद्यानंद जी जैसे प्रतिभा सम्पन्न तार्किक अध्ययन शील महामना के आगम, पुरातत्व एवं अनुभव आधारित सम्यक निष्कर्ष अनुकरणीय / मननीय हैं।
बदलते परिप्रेक्ष्य में दार्शनिक मान्यता से साम्य रखने वाली परम्पराओं की पुनः स्थापना श्रमण परम्परा के अनुरूप होगी और अभिषेकों के नाम पर धनार्जन रुकेगा ।
जो साहित्य जैन दर्शन मान्यता के विपरीत भ्रम उत्पन्न करने वाला हे, उसे गौण किया जाना चाहिये जिससे सामाजिक सद्भाव में वृद्धि हो ।
उक्त विवरण परोक्ष रूप से द्वितीयक सामग्री से उद्भूत है उसमें कहीं अन्यथा विवरण या चूक हुई हो तो उदार - विद्वानों के द्वारा संकेत किये जाने पर सहर्ष शुद्धिकरण हेतु तत्पर हैं।
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- बी 369 ओ. पी. एम. अमलाई जिला - शहडोल म. प्र.