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अनेकान्त 60/3
रविषेणाचार्य ने पर्व 14 में वीतरागता की प्राप्ति हेतु श्रावक के बारह व्रतों का स्वरूप और अन्य आवश्यक कर्तव्यों को बताते हुए पूजन और अभिषेक का कोई वर्णन नहीं किया। जबकि आपने सर्ग 32 में राम-लक्ष्मण के वन गमन कर जाने से शोक-संतृप्त भरत को संबोधित करते हुए आचार्य द्युति के माध्यम से गृहस्थ धर्म के रूप में सांसारिक अभिवृद्धि एवं स्वर्ग सुख की प्राप्ति हेतु श्लोक क्र. 165-169 में जिन पूजन और पंचामृत अभिषेक का विधान प्रासंगिक रूप से कराया है। ऐसा करते समय आचार्य रविषेण ने विमल सूरि का पूर्णतः अनुकरण किया है। दोनों के कथनो का मिलान करने पर यह स्थिति स्पष्ट होती है। जो निम्न उद्धरण से समझी जा सकती है! पदम चरियं (उद्देश्य 32)
खारेण जोऽमिसेयं कुण्इ जिणिंदढस्य भविराण्ण।
सो खीर विमलधवले रमइ विमाणे सुचिरकाले ।।179 ।। पद्मपुराण (पर्व 32):
अभिषेक जिनेन्द्राणां विधाय क्षीर धारया। विमाने क्षीर धवले जायते परम द्युतिः।।166 ।। अर्थ- जो दृध धारा से जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक करता है वह दृध के समान धवल विमान में उत्तम कान्ति का धारक होता है। (पद्य पुगण-भा. दो. पृ. 97) इसी प्रकार दही से दही समान फर्श वाले स्वर्ग में उत्तम देव, घी से कांति-द्युति युक्त विमान का स्वामी देव आदि होने का प्रलोभन दर्शाया है। बिना गंगा-स्नान किये स्वर्ग-पथ बता दिया। __उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि लौकिक-स्वर्ग सुख की कामना से पचामृत अभिषेक का प्रारम्भ प्रथमतः श्वेताम्बर परम्परा में हुआ। यह वैदिकी प्रभाव के साथ उनकी दार्शनिक मान्यता अभिप्राय से मेल खाता प्रतीत होता है। साम्प्रदायिक सद्भाव के परिप्रेक्ष्य में दिगम्बराचार्य रविषेण ने उसका अनुकरण किया। उनकी दृष्टि में इसका उद्देश्य वीतगगता की प्राप्ति न होकर स्वर्ग सुख की प्राप्ति था। इस प्रकार