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अनेकान्त 60/3
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संसार शरीर और भोगों से विरक्त है, अथवा प्रत्याख्यानावरण नामक चारित्रमोह कर्म के उदय से प्रेरित होकर स्त्री आदि विषयों को भोगते हुए भी उनके भोगने का आग्रह नहीं रखता, जिसकी एक मात्र अन्तर्दृष्टि अर्हन्त आदि पाँच गुरुओं के चरणों में ही रहती है, जो मूलगुणों में अतिचारों को जडमूल से ही दूर कर देता है और व्रतिक प्रतिमा धारण करने के लिए उत्कण्ठित रहता है तथा अपने शरीर की स्थिति के लिए (विषय सेवन के लिए नहीं) अपने वर्ण कुल और व्रतों के अनुरूप कृषि आदि आजीविका करता है वह दार्शनिक श्रावक माना गया है।
पं. आशाधर जी ने पाक्षिक श्रावक और दर्शन प्रतिमाधारी में भेद स्पष्ट किया है। पाक्षिक श्रावक सम्यग्दर्शन व अष्टमूलगुण का सातिचार पालन करता है, जबकि प्रथम प्रतिमा में निर्दोष पालन का निर्देश है। अत एव नैगम नय की अपेक्षा पाक्षिक को दार्शनिक कहा है। तथा आपत्तियों से व्याकुल होने पर भी दार्शनिक उसको दूर करने के लिए कभी शसन देवता आदि की आराधना नहीं करता। पाक्षिक तो कर भी लेता है।
2. व्रत प्रतिमा
जिसका सम्यग्दर्शन और मूलगुण परिपूर्ण है तथा जो माया, मिथ्यात्व और निदान रूप तीन शल्यों से रहित है, और इप्ट विषयों में राग तथा अनिष्ट विषयों में द्वेष को दूर करने रूप साम्यभाव की इच्छा से निरतिचार उत्तर गणों को बिना किसी कष्ट के धारण करता है, वह व्रतिक है। - इस प्रतिमा में श्रावक पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत एवं चार शिक्षाव्रतों का निरतिचार पालन करता है। विस्तार भय से यहां सिर्फ नामोल्लेख मात्र किया जा रहा है। अणुव्रत- 1. अहिंसाणुव्रत
2. सत्याणुव्रत