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अनेकान्त 60/3
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क्रमशः स्वरूप प्रस्तुत किया जाता है।
प्रतिमा स्वरूप पर विचार करते हुए उसके लक्षण श्रावकाचारों के आधार पर निम्र प्रकार से किया जा सकता है। 1. प्रतिज्ञा को प्रतिमा कहा गया है जो कि अभिसन्धिकृताविरति नाम
से उल्लिखित की जा सकती है। • 2. चारित्रधारण की प्रक्रिया में जब भोगों के प्रति विरक्ति होती है,
संयम का प्रादुर्भाव होता है और प्रतिज्ञा का उदय होता है, इस
स्थिति का नाम प्रतिमा है। 3. श्रावक के वे ग्यारह पद जिनमें निश्चय से प्रत्येक पद के गुण
अपने से पूर्ववर्ती गुणों के साथ क्रम से बढ़ते हुए रहते हैं, प्रतिमा
कहलाती है। 4. दर्शनमोह कर्म की मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व के अनुदय तथा
सम्यक्-प्रकृति के यथास्थिति रूप अनुदय एवं उदय और अनंतानुबंधी तथा अप्रत्याख्यानावरण कषाय के अनुदय क्षयोपशम से चारित्र की गतिमान स्थिति को प्रतिमा कहते हैं।
प्रतिमाओं के भेद के विषय में प्रायः एकमतता परिलक्षित होती है, कंवल आ. कार्तिकेय स्वामी इसके अपवाद है। उन्होंने अपने अनुप्रेक्षा ग्रन्थ में प्रतिमाओं की संख्या बारह मानी है। प्रथम प्रतिमा में सामान्य आचरण को अनिवार्य बताया है, शेष ग्यारह आ. कुन्दकुन्द के वर्णन के समान ही हैं। अन्य सभी श्रावकाचारकर्ताओं ने भी, जिन्होंने प्रतिमाओं का उल्लेख किया है, प्रथम दर्शन प्रतिमा से पूर्व सामान्य आचरण का संकेत किया है, परन्तु उसे प्रतिमा का दर्जा नहीं दिया।
पं. आशाधर जी द्वारा मान्य प्रतिमाओं का नाम निर्देश क्रमानुसार निम्ललिखित है1. दर्शन प्रतिमा 2. व्रत प्रतिमा