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आगमिक तथ्यों के आलोक में जलाभिषेक बनाम पंचामृत अभिषेक
- डॉ. राजेन्द्र कुमार बंसल तीर्थकर भगवन्तों के पाँच कल्याणक मनाए जाते हैं। जन्मकल्याणक के समय इन्द्राणी प्रसूति गृह में जाकर मायामयी बालक रखकर तीर्थकर-बालक सौधर्म इन्द्र को उल्लास पूर्वक लाकर देती है। सौधर्म इन्द्र ऐरावत हाथी पर बैठा कर बालक को सुमेरू पर्वत पर ले जाता है। वहाँ पांडुक शिला पर विराजमान कर 1008 कलशों से सौधर्म ईशानइन्द्र और देवतागण क्षीरसागर के पावन जल से बालक का जन्माभिषेक करते हैं। तप कल्याणक के समय देवों द्वारा जल से महाभिषेक के बाद की सर्व क्रियाओं में अभिषेक होने/करने का कोई विधान नहीं है। समवशरण में भी अभिषेक नहीं किया जाता। मुनिराज अ-स्नान व्रतधारी होते हैं। निरतिचार 28 मूलगुण पालते हैं। ज्ञान-ध्यान तप में लीन रहते हैं।
श्रावक के आट मूलगुण मुख्य हैं। अर्थात् मद्य, मांस, मधु और पांच उदम्बर फलों का त्याग होता है। इसके बिना श्रावक की भूमिका ही नहीं होती।
श्रावक के कुछ आवश्यक कर्तव्य भी हैं। रयणसार के अनुसार चार प्रकार का दान और देव शास्त्र गुरु की पूजा करना श्रावक का मुख्य कर्तव्य है (गाथा 11)। कषाय पाहुड़ में दान, पूजा, शील और उपवास को श्रावक का कर्तव्य बताया है। (82/100/2)। आचार्य पद्मनन्दि ने पंचविंशतिका में जिन पूजा, गुरु की सेवा, स्वाध्याय, संयम, और तप इन छह कार्यों को गृहस्थों के आवश्यक कार्य माने हैं, जिन पूजा का बहुत महत्व है। यह अप्ट द्रव्य से की जाती है। जो विवेकी जीव भावपूर्वक अरहंत को नमस्कार करता है, वह अतिशीघ्र समस्त दुखों से मुक्त हो जाता है (मू. आ. 506)। जिन बिम्व के दर्शन से निधत्त और