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अनेकान्त 60/3
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वनस्पति के दो भेद हैं- सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक। जिस प्रत्येक वनस्पति के आश्रय से साधारण वनस्पति (निगोदिया जीव) रहते हैं उसे सप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं। ऐसी वनस्पति को पञ्चम प्रतिमाधारी श्रावक पैर से छूने में भी ग्लानि करता है। उसका भक्ष्ण करना तो संभव ही महीं है।
जिस प्रत्येक वनस्पति कं साधारण वनस्पति कायिक जीव नहीं रहता है उसे अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं। जैसे-पूर्ण पका हुआ केला, पपीता
आदि। ऐसी वनस्पति को भी अप्रासक अवस्था में ग्रहण नहीं करता है। प्रासुक करने की विधि को कार्तिकेयान्प्रेक्षा में अच्छी प्रकार से स्पष्ट किया है। यहाँ प्रासंगिक होने से कथन किया जा रहा है। 1. जो सब्जी सूख चुकी है वह काष्ठ रूप हो जाने से अचित्त है, जैसे
सुपारी। 2. जो अग्नि में पका ली गई है वह अचित्त है, जैसे टमाटर की सब्जी
आदि। 3. जो तप्त अर्थात् गर्म कर ली गई है, वह अचित्त है जैसे उवला
जल, अंदर तक गर्म फल आदि। 4. आम्ल रस तथा लवण मिश्रित का अर्थ यह है कि जिस प्रकार
दूध में शक्कर डाली जाती है, उसी तरह यदि वह फल अंदर में भी सर्वाश रूप से अम्ल या लवण से मिश्रित हो गया हो तब वह अचित्त हो जाता है, जो ककडी, सेव आदि में सम्भव नहीं होता। जैसे कच्चे नारियल का पानी सचित्त होता है, उसमें नमक मिर्च
का चूर्ण डालकर घोल दिया जाये तो वह अचिन्त हो जाता है। 5. यंत्र से छिन्न करने का तात्पर्य यह है कि उस वस्तु को मिक्मी
मे डालकर ऐसा छिन्न भिन्न कर लिया जाए कि वह कपड़े में से छन सके। जैसे आम का रम, अनार का रम आदि। केवल चाक से सेव आदि के चार-छह टुकडे करने पर वे अचिन नहीं कहे जा सकते।