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अनेकान्त 60/3
21. सागार धर्मामृत, अध्याय आट, श्लोक स. 25 22 न धर्मसाधनमिति स्थास्नु नाश्य वपुर्वधैः ।
न च केनापि नो रक्ष्यमिति शोच्यं विनश्वरम् ।। 23 गहनं न शरीरम्य हि विसर्जनं किन्तु गहनमिह वृत्तम् ।।
तन्न स्थास्नु विनाश्यं न नश्वरं शामिदमाहु ।। 24 काय स्वस्थोऽनुवर्त्य स्यात् प्रतीकार्यश्च गेगित ।
उपकार विपर्यस्यम्तयाज्य सभि खलो यथा । 6 | 25 नावश्य नाशिने हिस्यो धर्मो देहाय कामद ।
दही नष्टी पुनर्लभ्यो धर्मस्त्वत्यन्तदुर्लभः ।।7।। 26. न चात्मघातोऽस्ति वृपक्षता वपुरूपक्षितु ।
कपायावेशतः प्राणान विपाघेहिमत. महि ।।।। 27 आपगा मागर स्नानमुच्चयः मिकताश्मनाम्। गिरिपातोऽग्निपातश्च लोकमूट निगद्यते।।122 ।।
रत्नकरण्ट श्रावकाचार 2५ मृड मुडाये जो सिधि होई। म्वर्ग ही भेट न पहची कोई ।।
विपत्तिमात्मनो मूढः परेषामिव नेक्षते।
दह्यमान मृगाकीर्णवनान्तर तरुस्थवत् ।। इष्टोपदेश - 14 दावानल में जलते हा जीवों को देखने वाले किसी वृक्ष पर बैठे हुए मनुष्य की तरह यह संसारी प्राणी दूसरों की तरह अपने ऊपर आने वाली विपत्तियो का ख्याल नही करता है।